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मता-ए-लौह-ओ-कलम 370 के बाद कश्मीर में कत्ल की जाती पत्रकारिता

-कारवां,

15 जनवरी को दोपहर 1.45 बजे कश्मीर प्रेस क्लब परिसर में एक बख्तरबंद काफिला दनदनाता हुआ घुसा. श्रीनगर के लाल चौक के पास पोलो व्यू पर स्थित प्रेस क्लब कश्मीर के पत्रकारों की नुमाइंदगी करता है. इससे एक दिन पहले से ही क्लब में पुलिस की मौजूदगी बढ़ा दी गई थी और बाहर सड़क पर गश्त थी. काफिला पहुंचने से पहले एक पुलिस अधिकारी ने गश्त के बारे में संवाददाताओं से कहा था, “एक बार साहब आ जाएं और अपना चार्ज संभाल लें तो हम चले जाएंगे.” अर्धसैनिक बल और जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों से घिरे टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक सलीम पंडित काफिले के आगे की एंबेसडर कार से बाहर निकले और फुर्ती से पहली मंजिल पर एक सम्मेलन कक्ष में चले गए.

ग्यारह अन्य पत्रकार, जिनमें से कई जम्मू-कश्मीर के वर्तमान प्रशासन के करीबी माने जाते रहे हैं, सम्मेलन कक्ष में घुसे और दरवाजा बंद कर लिया. दरवाजे के बाहर असॉल्ट राइफलों से लैस तीन पुलिस वाले परेशान हाल कर्मचारियों और क्लब के सदस्यों को घूर रहे थे. पुलिस के अपराध जांच विभाग के सदस्य भी गलियारों में फिरते दिखे. फिलहाल अपराध जांच विभाग कश्मीर के बेबाक पत्रकारों के खिलाफ प्रशासन का सबसे उम्दा हथियार है. एक घंटे बाद 12 पत्रकार कमरे से बाहर निकले और घोषणा की कि (वे प्रेस क्लब को) “हाथ में ले रहे हैं”.

कोविड-19 लॉकडाउन के बावजूद क्लब के बाहर सदस्यों की भीड़ लग गई थी. तुरंत ही, लगभग एक साथ, हमारे फोन बज उठे. हम सभी को एक व्हाट्सएप मैसेज मिला जिसमें पंडित और दो अन्य लोगों के दस्तखत से एक बयान जारी किया गया था. “निर्वाचित निकाय ने दो साल का अपना कार्यकाल 14 जुलाई 2021 को पूरा हो गया है. आप सभी को पता है कि कि पिछली समिति ने अज्ञात कारणों से चुनावों में देरी की और लगभग छह महीने तक क्लब नेतृत्वहीन रहा तथा मीडिया बिरादरी को अवांछित परेशानी में डाल दिया गया. इसलिए 15 जनवरी 2022 को कश्मीर घाटी के विभिन्न पत्रकार संगठनों ने स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव होने तक सर्वसम्मति से एम सलीम पंडित की अध्यक्षता में क्लब का तीन सदस्यीय एक अंतरिम निकाय बनाने का फैसला किया है. डेक्कन हेराल्ड के ब्यूरो प्रमुख जुल्फकारो माजिद इसके महासचिव होंगे और डेली गडयाल के संपादक अर्शीदो रसूल कोषाध्यक्ष.”

बयान में इस बात को कोई जिक्र नहीं किया गया कि नए चुनावों की घोषणा दो दिन पहले हो चुकी थी और 29 दिसंबर 2021 तक क्लब को फिर से पंजीकृत करने से सरकार के इनकार के कारण यह देरी हुई थी. साथ ही, यह भी स्पष्ट नहीं था कि ये कौन से "विभिन्न पत्रकार संगठन" थे या कहां और कैसे उन्होंने अंतरिम निकाय बनाने के लिए "सर्वसम्मति से सहमति" दी थी. इस बारे में कारवां ने पंडित को सवाल ईमेल किए थे. एक पेज लंबे जवाब में भी पंडित यह नहीं बता पाए. कश्मीर प्रेस क्लब में पंजीकृत 13 पत्रकार संगठनों में से दस ने 20 जनवरी को एक बैठक कर “जबरन कब्जा ... और बाद में जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा कश्मीर प्रेस क्लब को बंद करने” की निंदा की. प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स और कई अन्य राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संगठनों ने भी कब्जे की निंदा की है. कश्मीर के नेताओं ने भी इस कदम की आलोचकना की. पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने ट्वीट किया कि “केपीसी में आज का राज्य प्रायोजित तख्तापलट बुरे से बुरे तानाशाहों को भी शर्मसार कर देगा. यहां राज्य एजेंसियां अपने वास्तविक कर्तव्यों का निर्वहन करने के बजाए निर्वाचित निकायों को उखाड़ फेंकने और सरकारी कर्मचारियों को बर्खास्त करने में लगी हैं. उन लोगों पर शर्म आती है जिन्होंने अपनी ही बिरादरी के खिलाफ इस तख्तापलट में मदद की.”

जिन पत्रकारों से मैंने बात की उनमें इस बात पर आम सहमति थी कि कब्जे का मास्टरमाइंड जम्मू-कश्मीर प्रशासन था. हालांकि पंडित ने इस बात से इनकार किया कि प्रशासन ने उनका साथ दिया फिर भी कई ऐसी बाते हैं जो इस ओर इशारा कर रही हैं. जैसे पंडित और जिन दूसरे लोगों ने कब्जे का समर्थन किया था उनके आसपास पुलिस और अर्धसैनिक बंदोबस्त होना संदेहास्पद है. पंडित को सरकारों के करीबी के रूप में भी जाना जाता है.

नवंबर 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के तुरंत बाद पंडित ने कहा था कि एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक के संपादक के "आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और उसने अपने अखबार में लिखने के लिए जाने-माने 'जिहादी पत्रकारों' को काम पर रखा है." यह केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर में पत्रकारों को बार-बार राष्ट्र-विरोधी और इस्लामपंथी दिखाए जाने से मिलता-जुलता बयान है. पंडित की कश्मीर प्रेस क्लब की सदस्यता को क्लब की "बदनामी" करने के लिए तुरंत रद्द कर दिया गया था और तब से वह क्लब के सदस्य नहीं रहे हैं.

जनवरी 2020 में जब भारत सरकार ने 16 विदेशी राजनयिकों को कश्मीर घाटी के दौरे पर आमंत्रित किया और यह दिखाने की कोशिश की कि हालात सामान्य है, तब पंडित उन चुनिंदा मीडियाकर्मियों में से थे जिनसे उन्हें मिलने की इजाजत दी गई थी. प्रेस क्लब पर कब्जे के बाद पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पंडित का नाम लिए बिना ट्वीट किया कि "ऐसी कोई सरकार नहीं जिससे इस 'पत्रकार' ने वसूला न हो और ऐसी कोई सरकार नहीं है जिसकी ओर से इसने झूठ नहीं बोला हो. मुझे इसलिए पता है क्योंकि मैंने दोनों पक्षों को बहुत करीब से देखा है. अब उन्हें राज्य प्रायोजित तख्तापलट का फायदा मिला है.''

कारवां के सवालों के जवाब में, पंडित ने दावा किया कि वह प्रेस क्लब के संस्थापक रहे और क्लब के निर्वाचित निकाय ने "क्लब में मौजूद पाकिस्तानी तत्वों के इशारे पर सरकार का सामना करना चुना." उन्होंने दावा किया कि पिछले क्लब चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं थे, और यह झूठ था कि नए चुनावों की घोषणा पहले नहीं की गई थी. उन्होंने यह भी कहा कि क्लब का नेतृत्व मुफ्ती और अब्दुल्ला के आदेश पर काम कर रहा था. पंडित ने कहा कि "क्या कोई इस सवाल का जवाब दे सकता है कि कश्मीर के पत्रकारों के बीच आंतरिक संबंधों के कारण पाकिस्तानी राज्य और आतंकवादी क्यों भड़क गए? पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को कश्मीर में पत्रकारों के आंतरिक मामलों में दखल क्यों देना पड़ा? उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि क्लब में बड़ी संख्या में सुरक्षा बल के फुटेज को फोटोशॉप किया गया था. हालांकि मैं भी उस वक्त वहीं था और बात इसके एकदम उलट थी.

कब्जे के बाद के दिनों की घटनाएं यह भी दर्शाती हैं कि इसके पीछे प्रशासन का हाथ था. 17 जनवरी को सरकार ने क्लब को बंद करने के साथ-साथ उस इमारत को भी कब्जे में लेने का फैसला किया जिसमें यह था. क्लब का पोलो व्यू परिसर जुलाई 2018 में मुफ्ती सरकार ने दिया था. उन्होंने पत्रकारों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक निर्वाचित, सरकार-पंजीकृत निकाय की दशकों पुरानी मांग को स्वीकार कर लिया था. चार साल बाद ही "कश्मीर प्रेस क्लब में दो प्रतिद्वंद्वी गुटों के चलते घटी अप्रिय घटनाओं" पर चिंताओं का हवाला देते हुए प्रेस क्लब को अपंजीकृत कर दिया गया और इसका कार्यालय बंद हो गया. कश्मीर प्रेस क्लब के पहले महासचिव इश्फाक तांत्रे मानते हैं कि कब्जे की घटना से सरकार और इस “अंतरिम निकाय” दोनों की बदनामी हुई है.

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