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दिल्ली दंगे और भीमा कोरेगांव हिंसा

-बीबीसी,

हिंसा की दो घटनाएँ, देश के दो हिस्सों में अलग-अलग वक़्त हुईं. पहली एक जनवरी 2018 को पुणे के पास भीमा कोरेगांव में, और दूसरी फ़रवरी 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में. भीमा कोरेगांव मामले का ताल्लुक़ दलित आंदोलन से है जबकि दिल्ली दंगों का सीएए विरोधी प्रदर्शनों से.

ये दोनों घटनाएँ एक ही वजह से चर्चा मे रहीं. दोनों ही मामलों में मुकदमे दर्ज हुए, गिरफ़्तारियाँ हुईं, दोनों ही मामलों में जिन लोगों को लंबे समय से हिरासत में रखा गया है, वे सब एक ख़ास तबके से आते हैं- बुद्धिजीवी, वकील, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और छात्र नेता. इनमें एक और बात कॉमन है कि ये हिंदुत्व की राजनीति, सीएए-एनआरसी, दलित-अल्पसंख्यक उत्पीड़न और मानवाधिकारों के उल्लंघन के मुखर विरोधी रहे हैं. दोनों ही मामलों में जिन लोगों के खिलाफ शिकायत होने के बावजूद कार्रवाई नहीं हुई वे हिंदुत्वादी राजनीति से जुड़े लोग हैं. साथ ही, दोनों मामले केंद्र सरकार के अधीन आने वाली जाँच एजेंसियों के हाथों में हैं.

महीनों से हिरासत में बंद लोगों में कई दशकों से सक्रिय और नामचीन रहे हैं, जबकि दिल्ली के मामले में कई युवा छात्र नेता भी गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं जिनका ताल्लुक दो ऐसे शिक्षण संस्थानों से है जिनकी सरकार से तनातनी चलती रही है—जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया. गर्ल्स हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों पर लगाई जाने वाली पाबंदियों के ख़िलाफ़ शुरू हुए ‘पिंजरा तोड़’ अभियान से जुड़ी दो छात्राओं को भी हिरासत में लिया गया है.  

सरकारी जाँच एजेंसियों ने इन लोगों को हिंसा की साज़िश में शामिल, नक्सल समर्थक और प्रतिबंधित माओवादी संगठन से ताल्लुक़ रखने वाला बताया है, इनमें से ज्‍यादातर लोगों पर ग़ैर-कानूनी गतिविधि नियंत्रण कानून (यूएपीए) की धाराएँ लगाई गई हैं जो मोटे तौर पर आतंकवाद के मामलों में लगाई जाती हैं. जाँच एजेंसियों का कहना है कि ये लोग देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं इसलिए इन्हें ज़मानत पर रिहा नहीं होना चाहिए. यूएपीए के प्रावधानों के तहत जाँच एजेंसियाँ लोगों को बिना मुकदमा चलाए लंबे समय तक हिरासत में रख सकती हैं,

कितना सख़्त है यूएपीए?
भीमा कोरेगांव मामले में एक चार्जशीट और उसके बाद एक सप्लीमेंट्री चार्जशीट फ़ाइल हो चुकी है जबकि दिल्ली दंगों के मामले की जाँच चल रही है. इन दोनों मामलों में जाँच एजेंसियों की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं, आरोप लगाने वालों का कहना है कि हिंदुत्व की राजनीति से जुड़े लोगों को दोनों ही मामलों में ‘खुली छूट’ और ‘क्लीन चिट’ दी गई है जबकि दूसरे लोगों के साथ अतिरिक्त सख़्ती बरती गई है. सवाल ये है कि क्या दोनों मामलों में अब तक हुई कार्रवाइयों का एक जैसा होना महज एक संयोग हैै?

बहरहाल, दोनों मामलों में अदालत ही बेकसूर और कसूरवार का फ़ैसला कर सकती है. इन मामलों में कानूनी प्रक्रिया के तहत अब तक जो कुछ हुआ है, जो दस्तावेज़ मौजूद हैं, जो तथ्य सामने आए हैं उनको एक जगह, एक साथ रखने की कोशिश है ताकि लगातार घट रही छोटी-बड़ी घटनाओं को आप समग्रता में जान-समझ सकें.

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