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बापू के पास है घायल लोकतंत्र की औषधि

जनचौक,02 अगस्त 

बड़ी संख्या में लोग मानने लगे हैं कि भारतीय लोकतंत्र एक संकट के दौर से गुज़र रहा है। लोकतान्त्रिक संस्थाओं की कार्य शैलियाँ बदल रही हैं, कार्यकारिणी और न्यायपालिका के काम-काज में अनावश्यक हस्तक्षेप हो रहा है और शैक्षणिक संस्थाओं में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दखलंदाजी बढ़ती जा रही है। पाठ्यपुस्तकें बदली जा रही हैं और इतिहास को तोड़-मरोड़ कर बच्चों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। कहीं फैज़ पर निशाना है तो कहीं किसी और ऐसे लेखकों और चिंतकों पर जो प्रतिक्रियावादी ताकतों से अलग हट कर सोचता है, उनके खिलाफ आवाज़ उठाता है। हालाँकि ये सभी काम कमोबेश सभी सरकारें करती हैं, क्योंकि सत्ता में बने रहने के यही परंपरागत तरीके हैं। पर अब अधिक से अधिक लोग महसूस करने लगे हैं कि रेंगता हुआ, लिजलिजा फासीवादी सर्प जीवन के हर इलाके में अपनी नाक घुसेड़ रहा है।

ऐसी स्थितियों में एक छोटा वर्ग उन लोगों का भी है जिनका मानना है कि महात्मा गांधी की विचारधारा में इन समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। उनके पास ऐसा ताबीज़ है जो लोकतान्त्रिक तौर तरीकों की हिफाज़त कर सकती है। शर्त यह है हम उसे समझें और स्वीकार करें। ज़रा इसके अलग अलग पहलुओं पर नज़र डाल कर देखा जाए।   

करीब दो वर्ष पहले मैंने अपनी छात्राओं से कॉलेज में पूछा था कि क्या गांधीजी के विचारों की आज के समय में कोई प्रासंगिकता है भी या नहीं। ज़्यादातर इस बारे में चुप ही रहीं, पर कुछ ने कहा कि आज के भारत में गांधी जी बस एक नाम बन कर रह गए हैं। मुझे यह जान कर भी आश्चर्य हुआ कि कॉलेज की छात्राएं, जिनमें कई राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र की भी अध्येता थीं, गांधी जी और उनके विचारों के बारे में कितना कम जानती हैं! मौजूदा राजनीतिक माहौल और लोकतंत्र, एक सर्वसमावेशी, खुली हुई विचारधारा, अल्पसंख्यकों के बारे में फ़िक्र वगैरह से जुड़ी उनकी सोच कितनी तेजी से नष्ट हो रही थी। कैसे हमारे छात्र भी एक खतरनाक कुप्रचार, एक बहुत बड़े झूठ के शिकार हुए जा रहे हैं, और उन्हें इस बात की खबर ही नहीं! यह क्षण मेरे लिए दुःखद और आंखें खोलने वाला क्षण था। यह सच है कि मेरे छात्रों को गांधी जी की अहिंसा और सत्याग्रह से जुड़ी बातें एक यूटोपिया की तरह लगती थीं। पूरी तरह अव्यवहारिक और असंगत। पर यह सच बर्दाश्त करना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल प्रतीत हो रहा था।

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