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घुमंतू समुदाय: आशियाने की आस में समाज के हाशिये पर खड़े लोग

-असली भारत,

बदलते परिवेश में भी बागड़ी लौहार अपनी परंपरा और संस्कृति को सहेजे हुए हैं। लेकिन आज भी उनके पास रहने के लिए न तो जमीन का टुकड़ा है और न ही सिर पर छत
दोपहर के करीबन दो बजे हैं, तेज धूप और धूल भरी गर्म हवा से बचने के लिए गुरजीत तीन बच्चों के साथ अपने झोपड़ीनुमा तम्बू में बैठे हैं। चार साल की लाड्डो मिट्टी के कच्चे फर्श पर खेल रही हैं। वहीं दो बेटों में से एक गुरजीत की गोदी में है तो दूसरा बेटा करीबन दस बाई दस के काली तिरपाल के बने तम्बू में इधर-उधर अटखेलियां कर रहा है। गुरजीत के परिवार के अलावा तम्बू में एक कुत्ता है जो भरी दोपहरी में खाट के नीचे सुस्ता रहा है, एक बकरी है जो अन्दर ही बंधी है और बीच-बीच में मिमियां रही है।

करनाल से 15 किलोमीटर दूर जुन्डला-जानी रोड पर करीबन 40 साल से बागड़ी लौहार समुदाय के 20 परिवार रह रहे हैं। इन्हीं में गुरजीत का परिवार भी है। तीस की उम्र पार कर चुके गुरजीत उदासी भरे लहजे में कहते हैं, “हमारा भी कुछ हल होना चाहिए। बचपन से लेकर आज तक हमारी जिन्दगी इसी तरह के तम्बू में कट गई। कम-से-कम हमारे बच्चे तो इस तरह की जिंदगी न गुजारे। हमारे पास सरकारी सुविधा तो दूर रहने के लिये जमीन तक नहीं है।”

बेटे को गोद से उतारकर खाट पर लेटाते हुए गुरजीत ने बताया, “मेरा जन्म यहीं हुआ है और आज से करीबन दस साल पहले तक हमारे आसपास कोई घर नहीं था। यहां केवल हमारा ही कबीला था जिसमें हमारे 15 परिवार थे, लेकिन अब हमारे आसपास रिहायशी कॉलोनी कटने से नए घर बन रहे हैं।”

तिरपाल के आशियाने में बेहतर भविष्य का इंतज़ार
लोग अब तंग गलियों से बाहर खुले में आ रहे हैं। जैसे-जैसे खाली पड़ी जमीन में रिहायशी प्लॉट कटने से लोगों के पक्के मकान बन रहे हैं, वैसे-वैसे इनके तम्बू लगाने की जमीन सिकुड़ती जा रही है। गुरजीत ने बताया, “कुछ महीने पहले तक मेरे पिता भी हमारे साथ बगल के प्लॉट में रहते थे, लेकिन प्लॉट के मालिक ने घर बनाने की बात कही और तम्बू हटवा दिया। अब मेरे पिता यहां से करीबन 30 किलोमीटर दूर गांव बाल-पबाना के बागड़ी लौहार कबीले के पास रहते हैं। उन्होने वहीं अपना तम्बू डाल लिया है। यहां आसपास खाली पड़े प्लॉट के मालिक भी हमें तम्बू लगाने से मना करते हैं।”

गुरजीत बच्चों की पढ़ाई को लेकर काफी सजग दिखे। उन्होंने बताया कि पूरे कबीले में उन्होंने और उनके साथ के लोगों ने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। लेकिन अब वह चाहते हैं कि उनके बच्चे भी स्कूल जाए और समाज के दूसरे बच्चों की तरह पढ़ाई-लिखाई करें।

बागड़ी लौहार कबीले के सभी परिवार गांव देहात में प्रयोग होने वाले लौहे के बर्तन जैसे तवा, कढ़ाई, चिमटा, झरनी, खुर्पा, छाज आदि बनाते हैं। ये लोग इस तरह का सामान बनाकर आसपास के गांवों में ले जाकर बेचते हैं और बदले में आनाज या पैसे लेते हैं। गुरजीत भी अपनी जीविका के लिये यही काम करते हैं। वो बर्तन बनाते हैं और उनकी पत्नी गांव-गांव जाकर बर्तन बेचकर आती हैं। गुरजीत ने बताया कि अब यह काम भी मंदा पड़ चुका है क्योंकि लौहे के बर्तनों की जगह स्टील के बर्तनों ने ले ली है।

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