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क्या विश्वविद्यालय विद्यार्थियों के जीवन में अपनी निर्धारित भूमिका निभाने में विफल हो रहे हैं

-द वायर,

शाम का समय है. आदतन मोबाइल उठाकर इंटरनेट डाटा ‘ऑन’ करता हूं. ‘वॉट्सऐप’ के ‘स्टेटस’ देखता हूं. ‘वॉट्सऐप स्टेटस’ को मैं यूं ही देखकर छोड़ देने वाली चीज़ नहीं मान पाता. मुझे हमेशा लगता है कि विद्यार्थियों और नौजवानों के प्रसंग में तो उसकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए.

इस बात को तो कोई मनोवैज्ञानिक शोध ही स्पष्ट कर सकता है कि वह कौन-सी प्रक्रिया है, जिसके कारण कोई व्यक्ति ‘वॉट्सऐप स्टेटस’ लगाता है और अभिव्यक्ति की उसकी कैसी बेचैनी है कि वह कहना तो चाहता है पर बिना किसी से कहे बहुत लोगों तक पहुंचाना चाहता है.
पर अभी जो मुझे दिखा मैं उससे उद्विग्न हूं.

मैंने देखा कि हमारा एक प्रिय विद्यार्थी अपनी ‘जाति’ के लिए गठित ‘सेना’ का अपने प्रखंड का ‘युवा अध्यक्ष’ बन गया है. यह बात उसने ‘स्टेटस’ पर अत्यंत गर्व से लिखी है. यह वही ‘सेना’ है जिस ने लगभग तीन साल पहले एक फिल्म के लिए देश में कोहराम मचाया था. उसका कहना था कि उस फिल्म में ‘देवी’ की तरह आराध्य चरित्र का अपमान किया गया है. फिल्म की अच्छाई या कमियों पर अलग से बात की जा सकती है लेकिन इस फिल्म में ऐसी कोई बात दिखी नहीं थी जिससे यह लगे कि उस ‘चरित्र’ का अपमान हुआ हो.

मैं जिस विद्यार्थी की बात कर रहा हूं वह पढ़ाई-लिखाई की दृष्टि से भी कमजोर नहीं है. स्नातक में भी मेरे विषय में उसे हमेशा सबसे अधिक प्राप्तांक आते रहे. अभी एमए में भी वह एक तेज विद्यार्थी के रूप में समादृत है. मुझे याद आ रहा है कि स्नातक के अपने अंतिम सत्र में उस ने यू. आर. अनंतमूर्ति का ‘संस्कार’ उपन्यास भी पढ़ा था. यह उपन्यास हिंदू समाज की जातिगत संरचना और धार्मिक कुटिलता को अत्यंत धारदार एवं आलोचनात्मक रूप से प्रस्तुत करता है. इसे पढ़ाने वाले शिक्षक भी ऐसे थे, जिनकी अध्यापन क्षमता और परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर शक किया ही नहीं जा सकता.

यही वह बिंदु है जिसने मेरी मानसिक उद्विग्नता को बढ़ा दिया है. लगभग पांच वर्षों के विश्वविद्यालयी जीवन का क्या कुछ भी असर इस विद्यार्थी के ऊपर नहीं हो सका? क्या वह उक्त ‘सेना’ में शामिल होने के पहले एक बार भी ठहरकर नहीं सोच पाया होगा कि वह जो करने जा रहा है उससे उसकी इंसानियत में कमी होती है.

अगर विश्वविद्यालय के विचार में यह निहित है कि ‘परिसर’ में व्यक्तित्व का विकास होता है तो यह कैसा विकास है जो एक इंसान को महज एक ‘जाति’ की पहचान में क़ैद कर देता है? या यह भी हो सकता है कि वह काफ़ी सोच-समझकर ‘सेना’ में शामिल हो रहा हो. दोनों ही स्थितियों में इतना तो साफ़ पता चल रहा है कि सामाजिक जातिगत संरचना द्वारा उसे प्रदत्त पहचान और व्यक्तित्व विकास के लिए विश्वविद्यालय परिसर में मिले ‘अवसर’ में सामाजिक जातिगत संरचना ही उसे ज़्यादा प्रभावित कर पाई.

यहीं पर यह बात भी लगती है कि ऐसा सोचना भी महज भोलापन है कि विश्वविद्यालय परिसर जातिगत, सांप्रदायिक और लैंगिक भेदभाव से मुक्त स्थान है. कई बार का हमारा अनुभव यही बताता है कि विश्वविद्यालय परिसर में ऐसे भेदभाव अधिक उग्रता एवं क्रूरता से सामने आते हैं. फिर भी इन प्रसंगों में यह सवाल अनुत्तरित ही लगता है कि वह कौन-सी प्रक्रिया है जिसने इस विद्यार्थी के इंसानी व्यक्तित्व को परे हटाकर उसे महज एक ‘जाति’ के व्यक्ति में बदल देती है?

तब क्या इन परिस्थितियों में यह सोचना सही दिशा में होगा कि विश्वविद्यालय का जो विचार है वह भारतीय परिवेश ख़ासकर उत्तर भारतीय स्थिति में पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है? श्रीलाल शुक्ल के प्रसिद्ध उपन्यास ‘राग दरबारी’ के ‘छंगामल विद्यालय’ की तरह विश्वविद्यालयों को भी अपना काम छोड़कर कुछ अलग क़िस्म की ‘आटाचक्की’ चलाने पर मजबूर कर दिया गया है?

ऐसा इसलिए कि भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना के पीछे यह विचार सैद्धांतिक रूप से ही कहीं न कहीं ज़रूर था कि विश्वविद्यालय ऐसी नई पीढ़ी के विकास में सक्षम होगा, जो सामाजिक बुराइयों एवं कुरीतियों से मुक्त होगी. पर व्यावहारिक रूप से यह सामने आया कि विश्वविद्यालय सामाजिक बुराइयों एवं कुरीतियों को तो समाज से नहीं ही दूर कर पाया बल्कि ये सामाजिक बुराइयां और कुरीतियां बहुत ही गहराई से उसके भीतर जड़ जमा चुकीं.

अगर ऐसा नहीं होता तो विश्वविद्यालय या ऐसी ही किसी संस्था के द्वारा आयोजित परीक्षा में एक विद्यार्थी दहेज प्रथा के विरोध में निबंध लिखकर, परीक्षा में उत्तीर्ण हो, नौकरी प्राप्त कर फिर शादी के लिए बतौर दहेज कैसे मोटी रक़म और सामानों की मांग करता है? या फिर विश्वविद्यालयों से अनेक तरह के भ्रष्टाचार की ख़बरें नहीं आतीं. इससे पूरी तरह स्पष्ट है कि शिक्षा जो व्यक्तित्व में परिवर्तन का दावा करती है वह अविश्वसनीय है.

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