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महामारी की आड़ में जनता को जनसुनवाई से महरूम करने की कोशिश?

-न्यूजलॉन्ड्री,

लॉकडाउन के समय जनता घर में बंद थी और लाखों मजदूर सड़क पर थे. ऐसे में केंद्र सरकार ने पूर्व में बनाए गए कई नियम-कानूनों में ऐसे संशोधन प्रस्तावित कर दिए जिन्हें यदि वह सामान्य समय में प्रस्तावित करती तो उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ता. इन प्रस्तावित संशोधनों में सबसे महत्वपूर्ण संशोधन है केंद्रीय पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए यानी एनवायरमेंट इंपैक्ट ऐससमेंट) प्रक्रिया 2006 में संशोधन के लिए ईआईए -2020 का प्रस्तावित किया जाना.

इस संशोधन के बाद सबसे अधिक मार देश में चल रही सैकड़ों विकास परियोजाओं से विस्थापित हुए हजारों-लाखों आदिवासियों की जनसुनवाई पर पड़ी है क्योंकि इस संशोधन में यह प्रस्ताव रखा गया है कि जनसुनवाइयों को अब खत्म कर देना चाहिए.

ध्यान रहे किसी परियोजना के शुरू होने के पूर्व सरकार और प्रस्तावित परियोजना के प्रभावितों के बीच बकायद जनसुनवाई होती है. और इसमें प्रभावितों की सहमति से ही परियोजना आगे बढ़ती है. हाल ही में यह भी देखने में आया है कि इस व्यवस्था होने के बाद भी सरकार द्वारा प्रभावितों पर जनसुनवाई के दौरान बकायदा दबाव बनाकर उनसे सहमति हासिल की जाती रही है. जैसे मध्यप्रदेश में मंडला में चुटका परमाणु परियोजना, जिसमें अबतक हुई तीन जनसुनवाई में सहमति नहीं होने पर सरकार ने पुलिस के दबाव से सहमति हासिल करने का भरसक प्रयास किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली.

ऐसे में सरकार ने इस संशोधन के माध्यम से यह आसान रास्ता निकालने की कोशिश की है कि जब जनसुनवाई का प्रावधान ही नहीं रहेगा तो कौन विरोध करेगा. इस संबंध में मध्यप्रदेश के मंडला में प्रस्तावित परमाणु परियोजना के प्रभावितों के संगठन चुटका विस्थापित संघ के अध्यक्ष दादूला कुंडापे कहते हैं,

“सरकार के इस संशोधन से हम पहले ही रोजी-रोटी के लिए मोहताज हैं और इसके लागू हो जाने के बाद तो हमारे घर-द्वार भी सरकार अपनी मर्जी से गिरा देगी.” वह कहते हैं कि यह व्यवस्था लागू है तोहम दर-दर भटक रहे है और जब कानून नहीस बन जाएगा तो तब तो हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा.

प्रस्तावित संशोधन में जनसुनवाई के अलावा यह भी व्यवस्था की जा रही है कि पर्यावरण मंजूरी के पहले ही परियोजना निर्माण कार्य शुरू करने की छूट. क्योंकि देखा गया है कि कई परियोजनाओं को कई सालों तक पर्यावरण मंजूरी नहीं मिल पाती है. यहीनहीं खदान परियोजनाओं की मंजूरी की वैलिडिटी अवधि में बढ़ोतरी भी प्रस्तावित है. इसके अलावा परियोजना की मंजूरी के बाद नियंत्रण और निगरानी के नियमों में भारी ढील जैसे बदलाव प्रस्तावित हैं. हालांकि यह प्रस्तावित संशोधन से देश के एक बड़ा वर्ग प्रभावित होगा लेकिन मंत्रालय ने अपने प्रस्तावित संशोधन में अपना पक्ष रखते हुए साफ-साफ यह कह दिया है कि व्यवसायी और कंपनियों केलिए व्यापार सुगम करना इस प्रस्ताव का मुख्य उद्देश्य है.

मंत्रालय के प्रस्तावित संशोधन पर पिछले तीस सालों से आदिवासियों के अधिकारों और भूमिहीनों की लड़ाई लड़ रहे एकता परिषद के अध्यक्ष राजगोपाल पीवी कहते हैं, विगत कई वर्षों से पर्यावरण के विनाश की कीमत पर जो तथाकथित विकास हुआ उसकी क़ीमत वहां के स्थानीय निवासी सबसे वंचित होकर चुका रहे हैं. पूर्व में विस्थापितलाखों-करोड़ों वंचितों का आज वर्षों बाद भी पुनर्वास नहीं हो पाया है. वास्तव मेंजल जंगल और जमीन के अधिग्रहण से सर्वाधिक प्रभावित वह आदिवासी समाज है जो अपने जीविकोपार्जन और संस्कृति के लिये पूरी तरह उसी पर्यावरण पर निर्भर है.

वह कहते हैं कि पर्यावरण के विनाश को बढ़ाने देने वाले कानून, नीति और प्रक्रियाओं में छूट देने का मतलब होगा कि लाखों लोगों का विस्थापन. मुझे विश्वास था कि महामारी के बाद सरकारें इस बात को गहराई से समझेंगी कि प्रकृति आधारित जीविकोपार्जन ही टिकाऊ विकास का सबसे सरल मार्ग है. इसके उलट प्राकृतिक संसाधनों के अधिग्रहण के विनाश का रास्ता खोलकर सरकार संवेदन हीनता का ही परिचय दे रही है.

ध्यान रहे कि पर्यावरण मूल्यांकन अधिसूचना को पर्यावरण सुरक्षाअधिनियम, 1986 के अंतर्गत सबसे पहले 1994 में जारी किया गया था. इसके पहले यह कार्य महज प्रशासनिक जरूरत होता था. लेकिन 27 जनवरी, 1994 में पर्यावरण प्रभाव नोटिफिकेशन के जरिए एक विस्तृत प्रकिया शुरू किया गया .इस नोटिफिकेशन के अन्तर्गत 29 औद्योगिक एवं विकासात्मक परियोजनाओं (बाद में संशोधनकर इस संख्या को 32 किया गया) को शुरू करने के लिए केन्द्र सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से मंजूरी लेना अनिवार्य कर दिया गया. जिसमें बड़े बांध, माइंस, एयरपोर्ट, हाइवे, समुद्र तट पर तेल एवं गैस उत्पादन, पेट्रोलियम रिफाइनरी, कीटनाशक उद्योग, रसायनिक खाद, धातु उघोग, थर्मल पावर प्लांट, परमाणु उर्जा परियोजना आदि शामिल है.

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