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कृषि विधेयक और श्रम क़ानून में बदलाव: महामारी के बीच मोदी सरकार का विध्वंसकारी खेल

-द वायर,

पिछले साल नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था कि बड़े संरचनात्मक सुधारों जैसे नोटबंदी और जीएसटी ने अर्थव्यवस्था और इसके विकास में गंभीर व्यवधान पैदा किया है, भले ही ऐसे सुधार लंबे समय में फायदेमंद होंगे.

इससे पहले कि इन तबाही लाने वाले मशहूर सुधारों के कोई लाभ दिखाई देते, मोदी सरकार ने नए कृषि विधेयकों और श्रम कानूनों में बदलाव के रूप में मुश्किलें और बढ़ाने का रास्ता चुना है.

इनके गुण-दोष की बात तो अपनी जगह है, इन नए हानिकारक सुधारों को लाने के समय चयन अधिक महत्वपूर्ण है.

इन्हें ऐसे समय में लाया गया है जब महामारी के चलते अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है, जिसे किसी अन्य चीज से ज्यादा सुधारात्मक देखरेख की आवश्यकता है.

यह किसानों और औद्योगिक श्रमिकों के बीच उनकी आय को लेकर अधिक मानसिक तकलीफ और आशंका पैदा करने का समय नहीं है, जब समग्र राष्ट्रीय आय पहले ही 24% कम हो गई है और अर्थव्यवस्था को मांग में भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है.

संरचनात्मक सुधार भले ही वे लंबे समय में फायदेमंद हों, लेकिन उन्हें एक उपयुक्त समय पर लाना चाहिए जब आर्थिक तंत्र मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से इसके लिए तैयार हो. उन्हें उस तरह दबाया नहीं जा सकता है जैसे नए कृषि एवं श्रम कानूनों को जिस तरह किसानों और कामगारों पर थोपा जा रहा है.

लोकतंत्र में सरकार को लोगों के साथ हरसंभव तरीके से विचार-विमर्श करना चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा की तरह एक फिर से फैसला लेने के बाद जनता से बात करने की शुरूआत की है, जैसा उन्होंने नोटबंदी के दौरान किया था.

उन्होंने बीते सोमवार को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये बिहार की जनता को बताया कि जो लोग इतने सालों से स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर बैठे रहे, वे कृषि विधेयकों का विरोध कर रहे हैं.

लेकिन हकीकत यह है कि यह मोदी सकार ही थी, जिसने सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की जा सकती हैं.

तो क्या प्रधानमंत्री जनता के साथ अपनी बातचीत में सच बोलते हैं? नहीं, वे बिल्कुल भी ईमानदारी नहीं बरतते हैं. यही एक प्रमुख वजह है कि किसान इस सरकार की एक भी बात पर विश्वास नहीं करते.

इन गलतबयानबाजी का एक और उदाहरण ये है कि किस तरह से सरकार ने पिछले कुछ सालों में किसानों को बेवकूफ बनाया कि वे राज्य संचालित और नियंत्रित मंडियों की संख्या बढ़ाकर 20,000 करेंगे.

सरकार का दावा था कि वे किसान हाटों को कृषि बाजार या छोटी मंडी में परिवर्तित कर देंगे. ये वादे नए कानूनों में कहां फिट बैठेंगे, ये कोई नहीं जानता है.

किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने के लिए सरकार द्वारा गठित अशोक दलवई समिति ने ये सिफारिश दी थी. दलवई समिति ने सरकार नियंत्रित मंडियों की संख्या बढ़ाने पर काफी जोर दिया था.

इसलिए ये कोई नहीं जानता कि कृषि बाजारों को मुक्त बनाने के दावे के साथ अचानक लाए के इन किसान विधेयकों के पीछे मोदी सरकार की असली मंशा क्या है. कुछ भी हो, लेकिन भारत में मुक्त बाजार में किसान सबसे ज्यादा प्रभावित होता है.

इसी तरह महामारी के बीच सरकार श्रम कानूनों में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए श्रम संहिता या लेबर कोड पारित करने पर तुली हुई है, वो भी इससे संबंधित लोगों के साथ कोई  विचार-विमर्श किए बिना.

इसी साल अप्रैल महीने में कुछ भाजपा शासित राज्यों ने चीन से अपनी सप्लाई चेन शिफ्ट करने की इच्छुक अमेरिकी और जापानी कंपनियों को आकर्षित करने के नाम पर श्रम कानूनों में इस तरह के बदलाव की शुरूआत की थी.

क्या श्रम कानूनों में बदलाव से इन उद्देश्यों की पूर्ति होगी, यह एक अलग बहस है. ऐसे बदलावों के भले-बुरे होने उलट बड़ा सवाल ये है कि क्या पिछले 90 सालों के इतिहास में सबसे बड़ी वैश्विक मंदी के बीच इन कानूनों को लागू किया जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मामले में बिल्कुल निश्चिंत दिखाई देते हैं कि व्यापक प्रभाव वाले श्रम एवं कृषि कानूनों में संसद के भीतर और नागरिक समूहों के साथ विचार-विमर्श के बिना बदलाव किया जा सकता है.

कोविड-19 लॉकडाउन के बीच 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज के साथ अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए घोषित किए गए बड़े संरचनात्मक सुधारों के नाम पर सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ताक पर रख दिया गया है.

कृषि राज्य का विषय है और कृषि बाजारों का विनियमन राज्य के अधिकार क्षेत्र में होता है. इसके बावजूद राज्यों से उन कृषि कानूनों को लेकर संपर्क नहीं किया गया, जो किसानों और कॉरपोरेट्स के बीच नए अनुबंध बनाने में राज्यों के अधिकारक्षेत्र को दरकिनार करना चाहते हैं.

कुछ राज्य देश में 7,000 मंडियों के बाहर किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए अधिक विकल्प देने के नाम पर किए जा रहे नए संशोधनों को संवैधानिक रूप से चुनौती देने पर विचार कर रहे हैं.

नए कृषि और श्रम कानून, दोनों के चलते किसानों और संगठित क्षेत्र के कामगारों की आय पर बड़ा प्रभाव पड़ने वाला है.

औद्योगिक कानूनों में बदलाव का लक्ष्य कारखानों को बिना किसी वैधानिक अनुमति के 300 कर्मचारियों को काम पर रखने और निकालने की आजादी देना है.

अब तक केवल 100 श्रमिकों वाले कारखानों के लिए ऐसा करना संभव था. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे कुछ भाजपा शासित राज्यों ने नए निवेशों को आकर्षित करने के लिए इन कठोर प्रावधानों को लागू किया है.

नए श्रम कानून कॉन्ट्रैक्ट के हिस्से के रूप में सरकार कर्मचारियों और प्रबंधन के बीच एक मानक सामूहिक समझौते की शुरूआत का प्रस्ताव कर रही है, जो दोनों पक्षों के अधिकारों और दायित्वों को निर्धारित करेगा.

इसके तहत कर्मचारी औपचारिक रूप से एक सामूहिक समस्या को उठा सकते हैं और एक औपचारिक फ्रेमवर्क के दायरे में प्रबंधन के साथ बातचीत कर सकते हैं.

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