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किसान बहुत सारे मुद्दों पर सफल रहे, पर मीडिया पूरी तरह नाकाम रही

-गांव सवेरा, 

प्रधानमंत्री के कुछ किसानों को न मना पाने के कारण तीनों कानूनों को वापस नहीं लिया गया, बल्कि इसके पीछे का सही कारण है किसानों का दृढ़ता से डटे रहना। जबकि डरपोक मीडिया उनकी शक्ति और संघर्ष की सही कद्र भी नहीं कर रहा है।मीडिया खुल कर यह नहीं मान रहा की, कई सालों में, हुए दुनिया के इस सबसे लंबे संघर्ष ने जीत हासिल की है, जो महामारी के प्रचंड दौर में अपने संघर्ष को शुरू किया और जारी रखा।

इस विजय ने एक विरासत को आगे बढ़ाया है। सभी तरह के किसानों, आदिवासी और दलित समुदायों से जुड़े महिलाओं और पुरुषों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और हमारी स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में किसानों ने दिल्ली की देहरी पर अपनी संघर्ष की उसी आत्मा का फिर दर्शन करवा दिया है।प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि पीछे हटते हुए, वे कृषि के इन तीनों कानूनों को आगामी संसद के अधिवेशन (29 नवंबर)  में वापस ले लेंगे। उनके अनुसार ऐसा किसानों के एक वर्ग को उनके द्वारा मना पाने में असफल रहने के कारण हुआ है। ध्यान दीजिए सिर्फ एक वर्ग को वह नहीं समझा सके कि तीनों गलत कानून वास्तव में उनके लिए लाभदायक हैं।इस संघर्ष के दौरान 600 से भी अधिक शहीद हुए किसानों के बारे में उन्होंने ( प्रधानमंत्री ने) एक भी शब्द नहीं कहा। वह साफ कह रहे हैं कि उनकी सिर्फ एक कमी रही, वह यह कि वह किसानों के एक वर्ग को नहीं समझा सके।

महामारी के दौरान जबरदस्ती लाद दिए गए कानूनों में वह कोई कमी नहीं मानते।तो, ‘खालिस्तानी’, ‘देशद्रोही’, ‘किसानों के भेष में नकली कारिंदे’, आदि किसानों का वह वर्ग है जो प्रधानमंत्री के शांत कर देने वाले जुमलों से समझाया न जा सका। उन्होंने मानने से इंकार कर दिया।मनाने का तरीका और पद्धति कैसी थी? अपनी शिकायतों को समझाने के लिए जाते किसानों को राजधानी में प्रवेश न करने देना, खंदकों और कंटीली बाड़ से उनका रास्ता रोकना, पानी की बौछारें।उनके कैंपों को छोटे- छोटे यातना शिविर बना कर। शक यह भी है कि एक केंद्रीय मंत्री के बेटे के वाहनों ने लोगों को कुचला। मनाने का इस सरकार का तरीका ऐसा ही है।

केवल इस एक साल में प्रधानमंत्री ने विदेश के सात दौरे किए हैं (सबसे आखरी COP26 जैसे)। लेकिन उनके पास इतना समय नहीं था कि अपने घर से कुछ किलोमीटर जाकर दस हजार के करीब किसानों की बात सुन लेते, जो दिल्ली की देहरी पर थे और जिनकी तकलीफ दुनिया भर ने महसूस की। क्या मनाने का सही तरीका ऐसा ही होता है?

इस संघर्ष के आरंभ से ही मुझे मीडिया और अन्य लोगों के प्रश्नों की बौछारें झेलनी पड़ीं कि यह संघर्ष कब तक चलने की उम्मीद है? किसानों ने इसका जवाब दे दिया है। लेकिन उन्हें पता है कि यह शानदार जीत का अभी पहला कदम ही है। कानून वापसी का मतलब है कि फिलहाल अभी उनकी गर्दन कॉरपोरेट के पैरों तले आने से बच गई है। लेकिन एमएसपी, खरीद से लेकर अन्य आर्थिक मामलों जैसी बड़ी समस्याओं के हल निकालने जैसी बातें अभी बाकी हैं। टेलीविजन पर लगभग हैरान करते हुए एंकर हमें सूचना दे रहे हैं  कि कानूनों की इस वापसी का संबंध फरवरी 2022 में पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों से है।

यह मीडिया आपको 3 नवंबर को घोषित हुए 3 संसदीय और 29 विधान सभाओं के मध्यावधि चुनावों के परिणामों के बारे में बताने में नाकाम रहा है। उस समय के संपादकीय पढ़िए और टीवी पर हुए विश्लेषण देखिए। उन्होंने शासक दल की मध्यावधि चुनाव जीतने की बातें की, अन्य बातें बहुत कम की गईं। बहुत कम संपादकीयों में उन परिणामों पर असर डालने वाले दो मुख्य कारणों का जिक्र किया गया। पहला किसानों का संघर्ष और दूसरा कोविड़-19 का कुप्रबंधन।

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