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एक शताब्दी पहले के मुजारा आंदोलन में अपनी जड़े तलाशता मौजूदा किसान आंदोलन

-कारवां,

“मुजारों ने बिस्वेदरी प्रणाली के खिलाफ लड़ाई लड़ी. मौजूदा आंदोलन कारपोरेट पूंजीवाद के खिलाफ है,'' पंजाब के मनसा जिले के बीर खुर्द के किसान किरपाल सिंह बीर ने मुझे बताया. 1920 के दशक में जब पंजाब का बंटवारा नहीं हुआ था, पट्टेदार किसानों ने राजाओं, जमींदारों और ब्रिटिश अधिकारियों से भूमि स्वामित्व अधिकार के लिए आंदोलन किया था. उस आंदोलन को मुजारा आंदोलन के नाम से जाना जाता था. किरपाल और उनके भाई सरवन सिंह बीर ने लगभग तीन दशकों तक बिस्वेदरी प्रणाली के खिलाफ लड़ाई लड़ी है. बिस्वेदारी प्रणाली जमीन के किराए से संबंधित व्यवस्था थी. किरपाल अब 93 साल के हैं और इस उम्र में भी जोश से लबरेज हैं. वह खुद को कॉमरेड बताते हैं. मैंने दिसंबर 2020 में उनसे बात की. तब वह कृषि कानूनों के खिलाफ जारी आंदोलन में शामिल होने दिल्ली की सीमाओं पर कई दिन बिता चुके थे. "हालांकि दोनों आंदोलनों में फर्क है. फिर भी मुझे लगता है कि मैं उसी पुरानी सत्ता से लड़ रहा हूं," उन्होंने मुझे कहा.

मुजारा या पट्टेदार किसान आंदोलन एक संगठित प्रयास था और इसकी जड़ें 1920 के प्रजा मंडल आंदोलन में थीं. प्रजा मंडल उपमहाद्वीप में ब्रिटिश और देशी कुलीन तंत्र के खिलाफ लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग के लिए स्थानीय लोगों का आंदोलन था और इसने दो शताब्दियों से इस क्षेत्र में लोगों और किसानों के आंदोलनों की परंपरा को आगे बढ़ाया.

इस ऐतिहासिक आंदोलन की गूंज किसानों के चल रहे विरोध प्रदर्शनों में सुनाई देती है. मैंने मौजूदा किसान आंदोलन में शामिल कई ऐसे लोगों से बात की, जिनके पुरखों परिजनों ने मुजारा आंदोलन में भाग लिया था. उनके लिए मौजूदा आंदोलन कारपोरेट घरानों से जमीन बचाने की लड़ाई है. उनके मानना है कि हाल के कृषि कानून विघटनकारी हैं जो एक सदी पहले की तरह ही किसानों के अधिकारों को खतरे में डालते हैं. दोनों आंदोलनों के बीच समानताएं भी हैं. जैसे दोनों आंदोलनों और उसके चलते हुई किसान गोलबंदी की जड़ में सरकार की नीतियां रही और दोनों ही आंदोलन जमीन के अधिकार की लड़ाई हैं. सत्ता के प्रति अविश्वास दोनों आंदोलनों में था. राज्य की प्रतिक्रिया में भी समानता दिखाई देती है. दोनों ही बार राज्य ने विरोध प्रदर्शनों को ध्वस्त करने के लिए राज्य मशीनरी का इस्तेमाल किया.

विरोध प्रदर्शन को अब छठा महीना हो चला है और सरकार लगातार आंदोलन को अवैध बताने की कोशिश करती रही है, खासकर 26 जनवरी की किसान रैली के दौरान हुई हिंसा के बाद से. कई आंदोलनकारियों के लिए यह मुजारा आंदोलन की तरह ऐतिहासिक आंदोलन हैं जो अतीत से यह सबक हासिल करता है कि किसी लंबे संघर्ष को कैसे जारी रखा जाए.

मुजारा एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है साझा-खेती. इसके तहत कोई जमींदार किसी खेत मजदूर या जोतदार को पहले से तय उपज के हिस्से के बदले जमीन का एक टुकड़ा पट्टे पर देता है. इतिहासकार मुजफ्फर आलम के मुताबिक 1709 में सिख योद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब में मुगल युग की जमींदारी व्यवस्था को खत्म कर दिया था. गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा सिंह ने 1708 से 1715 के बीच मुगल साम्राज्य के खिलाफ सिख विद्रोह का नेतृत्व किया था. हालांकि 1793 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत के कमांडर-इन-चीफ चार्ल्स कॉर्नवॉलिस ने स्थायी निपटान अधिनियम, 1793 के तहत जमींदारी प्रथा को फिर से चालू कर दिया. इस कानून ने ब्रिटिश सरकार के प्रशासनिक ढांचे को कानूनी रूप दिया. कॉर्नवॉलिस के भूमि सुधारों में उप-महाद्वीप में मौजूदा भूमि स्वामित्व प्रारूपों के आधार पर कई क्षेत्रीय भिन्नताएं थी. इसकी एक सामान्य विशेषता जमींदारों और रियासतों के प्रमुखों को भूमि का नियंत्रण प्रदान करना भी थी. पंजाब में नियमों ने सामंती प्रभुओं का साथ दिया और उन्हें भूमि पर अधिकार दिया और जोतदार के स्वामित्व को कमजोर कर दिया. इस "स्थायी बंदोबस्त" का प्राथमिक उद्देश्य एक देशी शासक वर्ग का निर्माण करना था जो ब्रिटिश समर्थन हो और उसकी मदद से पंजाब के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण हो सके. 

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ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि इस प्रणाली के तहत दो तरह के काश्तकार होते थे जो खेती करते और जमींदारों को उनका हिस्सा देने और ब्रिटिश सरकार द्वारा बिस्वादारों से भू-राजस्व की एक निश्चित राशि लेने के बाद फसल का एक हिस्सा रख लेते. एक थे दखलकारी काश्तकार, जिन्हें निष्कासित नहीं किया जा सकता था लेकिन जमींदार को अत्यधिक कर का भुगतान करना होता था. दूसरे थे निर्भर काश्तकार या मुजारस, जिन्हें कानूनी नोटिस देकर जमीन से बेदखल किया जा सकता था. जैसे-जैसे समय बीतता गया, ज्यादा से ज्यादा काश्तकारों को बाद की श्रेणी में डाल दिया गया और पूरे गांव मुजारस बन गए. इस प्रणाली को बिस्वेदारी प्रणाली या चरम पट्टेदारी के रूप में जाना जाता है. इन वर्षों में बिस्वेदारों ने बटाई का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा वसूलना शुरू कर दिया. यहां तक ​​कि राजाओं ने पट्टेदारों से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा लेने के लिए विस्तृत कानून बनाए. उदाहरण के लिए अगर मालिक या पट्टेदार परिवारों में जन्म और विवाह होते तो कुछ हिस्सा महाराजाओं को भोग के रूप में भेजा जाना होता था.

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक पंजाब क्षेत्र ब्रिटिश शासित प्रदेशों का एक समूह था, जिसे ब्रिटिश प्रशासित पंजाब के नाम से जाना जाता था. इसमे दिल्ली, रावलपिंडी, लाहौर, मुल्तान, और जुल्लुंदुर तथा पटियाला, जींद, नाभा , सिरमौर, पटौदी और कलसिया जैसी रियासतें या देशी राज्य शामिल थे. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन गति पकड़ रहा था और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन हो रहे थे. 1927 में पंजाब क्षेत्र के सुनाम, मनसा और ठिकरीवाला में प्रजा मंडल के कई सम्मेलन हुए. 17 जुलाई 1928 को अकाली आंदोलन के एक नेता सेवा सिंह ठिकरीवाला ने  आधिकारिक तौर पर पटियाला से रियासती प्रजा मंडल आंदोलन शुरू किया. ठिकरीवाला इसके अध्यक्ष थे और अकाली नेता भगवान सिंह लौंगोवालिया इसके महासचिव थे. अकाली आंदोलन सिख पूजा स्थलों के सुधार का अभियान था.

मुजारा आंदोलन के उदय को देखते हुए लेखक चज्जू मल वैद ने अपनी पुस्तक पेप्सु मुजारा घोल में लिखा है कि प्रजा मंडल आंदोलन कई गठबंधनों और संरचनाओं के लिए शुरुआती बिंदु था. 1929 तक लगभग 784 गांव मुजारा में शामिल हो गए.

1936 में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया गया और 1937 में इसकी पंजाब इकाई शुरू हुई. प्रजा मंडल के नेताओं ने अपनी मांगों को एआईकेएस में मिला लिया. 1948 में नाभा, जींद, पटियाला, कपूरथला, मालेरकोटला, फरीदकोट, कलसिया और नालागढ़ की आठ रियासतें स्वतंत्र भारत के एक नए राज्य के रूप में विलय हो गईं, जिसे पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ कहा जाता है. पीईपीएसयू को महाराजाओं के शासन को बनाए रखने के लिए बनाया गया था और नई रियासतों के तहत भूमि व्यवस्था ने उनका समर्थन किया. इसका मतलब यह था कि आजादी के बाद काश्तकार किसानों की हालत नहीं बदली. उनके लिए शासक, जमींदार और राजा बने रहे. 1948 में स्वतंत्रता सेनानी और कम्युनिस्ट नेता तेज सिंह सुतांतर ने लाल कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया. एआईकेएस, प्रजा मंडल और मुजारा आंदोलन ने पार्टी के साथ हाथ मिलाया. उनकी मांगें थी : जमीन जोतने वालों को जमीन का मालिकाना.

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