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हिंदी पट्टी का रक्त-चरित्र; पिछले चार दशकों में ऐसे पनपी बाहुबली संस्कृति

-आउटलुक,

“हिंदी प्रदेशों और खासकर सियासी तौर पर सबसे अहम उत्तर प्रदेश के सामाजिक-राजनैतिक तानेबाने में पिरोयी गैंगस्टर और बाहुबली संस्कृति पिछले चार दशकों में राजनीति के तौर-तरीकों का नतीजा”
यकीनन अपने रंग-ढंग और सामाजिक परिस्थितियों में पुराने दौर के बागी डकैतों और आज के गैंगस्टर या डॉन वगैरह का चाल, चरित्र सब कुछ एकदम अलग है। लेकिन दोनों की जुबान पर आज भी वही गर्व से फबता है, जो सबसे लोकप्रिय फिल्मी डकैत की बोली से गूंजा थाः “कितना इनाम रखा है सरकार हम पर?” ठहाके गूंजते हैं, “पूरे 50 हजार, सरदार!” असल में खौफजदा करने वाला यही ठहाका हर डकैत या गैंगस्टर की पूंजी होती है, जो उसके बारे में किंवदंती की तरह चारों ओर छाई रहती है। लोगों के बीच छाए इसी खौफ की बनिस्बत वह अपनी आपराधिक दुनिया को फैलाता है और अपना दबदबा कायम करता है। सिनेमाई कहानियां भी एकदम मनगढ़ंत नहीं होतीं। वे उसी के इर्दगिर्द बुनी होती हैं, जो निपट असली आपराधिक दुनिया और उसके बारे में प्रचलित किंवदंतियों के बीच पुल जैसी बिछी रहती हैं। असली दुनिया में आज के गैंगस्टरों का रंग-ढंग परदे के खूंखार से दिखने वाले पात्रों से एकदम अलग है लेकिन वे भी अपनी उसी पूंजी के सहारे होते हैं और खौफजदा करने की उसी शैली पर फख्र करते हैं, जो निपट पुरानी है। इसी से उनके अवैध कारोबार के दरवाजे खुलते हैं। उनका रहन-सहन, उनकी आकांक्षाएं, उनकी दुनियावी सोच-समझ, उनके तौर-तरीके चाहे जितनी वितृष्‍णा पैदा करें, मगर उसकी बारिकियां दिलचस्प हैं और उनसे राजनैतिक-सामाजिक हकीकत को जानने-समझने में मदद मिलती है।

पहले हाल ही में एक सवालिया पुलिस मुठभेड़ में मारा गया विकास दुबे का जिक्र जरूरी है, जिससे राजनीति, समाज और पुलिस तथा सरकारी तंत्र के स्याह पक्ष का खुलासा होता है। विडंबना देखिए कि अपराध-मुक्त राज्य बनाने के वादे पर अपराधियों के सफाए के लिए “ठोक दो” कहकर पुलिस को हरी झंडी देने के बावजूद यह सि‌लसिला जारी है।

खैर, गैंगस्टर इतने दुर्दांत कैसे बन जाते हैं, यह जानने के लिए कुछ पुरानी फाइलें पलटते हैं। उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक में लखनऊ में गैंगस्टर श्रीप्रकाश शुक्ला की कहानी इस दुनिया की तसवीर दिखाती है। शुक्ला अपने आपको ‘बड़ा बाबू’ कहता था और अपने साथ हमेशा एक बैग रखता था। वह कहता था कि उसके बैग में ऑफिस का सामान है। असल में शुक्ला जिस सामान की बात करता था, वह एक-47 राइफल थी।

इसी तरह 70 और 80 के दशक में चंबल के बीहड़ों में छबीराम बागी या डकैत का खौफ था। इटावा, मैनपुरी और फिरोजाबाद में उसके नाम का आतंक हुआ करता था। उसकी एक पुलिस अफसर का अपहरण करने की कहानी काफी चर्चित है। उसने पुलिस अफसर को तब तक बंधक बनाकर रखा, जब तक अफसर की पत्नी सारे गहने लेकर उसके पास नहीं पहुंची। लेकिन कहानी यहीं पर दिलचस्प मोड़ लेती है। पुलिस अफसर की पत्नी ने डकैत को गहने देते वक्त ‘भैया’ कहकर पुकारा। यह संबोधन सुनते ही डकैत का दिल पसीज गया और उसने सारे गहने लौटा दिए। भले ही छबीराम की कहानी पूरी फिल्मी लगती हो, लेकिन प्रतापगढ़ के माफिया राजा भैया की कहानी कुछ कम नहीं है। उन पर आरोप लगता रहा है कि वह अपने दुश्मनों को तालाब में पाले गए घड़ियालों का भोजन बना देते थे।

भले ही मुंबई का अंडरवर्ल्ड कमाई के मामले में ज्यादा ताकतवर है और उसे मीडिया में ज्यादा सुर्खियां मिलती हैं, लेकिन हिंदी पट्टी के ये देसी गैंगस्टर अपने क्षेत्र में रसूख और आतंक में किसी से कम नहीं। कानून के रखवालों और गैंगस्टरों के बीच कानून की दीवार इतनी कमजोर हो चुकी है कि आए दिन इनके आतंक की दास्तां सामने आती रहती है। ताजा मामला कानपुर के गैंगस्टर विकास दुबे का है। उसने अपने बिकरू गांव में 2-3 जुलाई की दरम्यानी रात को छापा मारने गई पुलिस टीम के आठ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। उसमें शामिल विकास दुबे के एक साथी को बाद में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उसने बताया कि विकास दुबे को पुलिस के ही एक मुखबिर ने सूचना दी थी कि उसे पकड़ने के लिए पुलिस छापा मारने वाली है। वारदात स्थल पर कितनी राउंड गोलियां चली थीं, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि वारदात के बाद आठ दिनों तक गोलियों के खोखे मिलते रहे। हालांकि बाद में विकास दुबे और उसके चार साथियों को पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया।

बिकरू गांव हत्याकांड के बाद से फरार विकास दुबे न केवल पुलिस के निशाने पर रहा, बल्कि मीडिया ने भी उसकी कवरेज का कोई मौका नहीं छोड़ा था। हालांकि उसके एनकाउंटर की कहानी जरूर भरोसेमंद नहीं लगती। पुलिस के अनुसार उसकी गिरफ्तारी सातवें दिन मध्य प्रदेश के उज्जैन से की गई, जिसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस उसे कानपुर लेकर आ रही थी। कानपुर से कुछ दूर पहले, तेज बारिश में पुलिस की गाड़ी पलट गई और मौके का फायदा उठाते हुए दुबे ने पुलिस अधिकारी का हथियार छीनकर, भागना शुरू कर दिया। पुलिस ने जब दुबे को सरेंडर करने को कहा तो उसने पुलिस टीम पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। जान बचाने के लिए पुलिस ने भी गोलियां चलाई, जिसमें विकास मारा गया। इससे संदेह है कि उसके राजनीति और अफसरशाही के उस गठजोड़ का राज भी दफन हो गया जिसके सहारे उसे 60 संगीन मामलों के बावजूद जमानत मिली हुई थी और हत्या जैसी वारदात करने के बावजूद उसकी लाइसेंसी बंदूक उसके पास सलामत थी। यही सवाल अब सुप्रीम कोर्ट पूछ रही है और मुठभेड़ की न्यायिक जांच के लिए उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार से कह चुकी है। विकास दुबे का मामला सामने आने के बाद एक बार फिर उत्तर प्रदेश की घिनौनी आपराधिक दुनिया का खुलासा हुआ है। यह बताता है कि कैसे राज्य में अपराध की संस्कृति विकसित हो गई है जो दुबे जैसे डॉन या गैंगस्टर को पनपने का मौका देती है। अहम बात यह है कि राज्य में यह संस्कृति दशकों से चली आ रही है।

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