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बिना संघर्ष के औरतों को न मर्द कुछ देंगे, न ही सरकारें

-जनज्वार

कागज पर बने कानूनों और जमीनी स्तर पर उनके क्रियान्वयन के बीच लगातार दिखाई देने वाला अंतर सरकार की निष्क्रियता के चलते ही है। इसे पितृसत्ता को वास्तविक चुनौती देने की राज्य की अपनी भूमिका से बचने के रूप में भी देखा जा सकता है….

पाकिस्तान में पेशे से वकील सारा मल्कानी की टिप्पणी

पाकिस्तान में महिलाओं पर हिंसा अपराध भी है और सामाजिक रूप से स्वीकृत परम्परा भी। हमारे यहां महिलाओं को सुरक्षा देने वाले क़ानून तो हैं, लेकिन सरकार ने इन क़ानूनों को लागू करवाने से खुद को मुक्त रखा है। इसका मतलब है कि महिलाओं का सरकार के साथ स्वाभाविक रूप से झूठ जैसा एक रिश्ता है। यानी कि जहां एक ओर सरकार संवैधानिक वादों, अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के तहत प्रतिबद्धताओं और कुछ प्रगतिशील क़ानूनों के रूप में महिलाओं को अधिकार देती है, वहीं दूसरी ओर ये इन क़ानूनों को लागू करने से मना कर और इन अधिकारों को हासिल करने के हालात बनाने में मदद ना कर इन अधिकारों को छीन लेने का काम करती है।

औपचारिक समानता की गारंटी देना और ज़मीनी धरातल पर वास्तविक समानता देने से मना करने की ज़िद उस हिंसक जीवनसाथी के बर्ताव की तरह है जो किसी तरह आपको यह विश्वास दिलाता रहता है कि उसके हिंसक होने के बावजूद आपको उसकी ज़रुरत है। जब उसे इस बात की आशंका होने लगती है कि आप उसे छोड़कर चली जाएंगी तो वो अपने व्यवहार को बदलने का वादा करता है और हो सकता है कुछ दिनों अच्छा व्यवहार भी करने लगे लेकिन फिर पुराना ढर्रा अपना ले।

इसी तरह महिलाओं पर अत्याचार और लैंगिक समानता के बहुत ही खराब संकेतकों के बारे में रोज आने वाली रिपोर्ट्स के चलते हमारे सरकारी अधिकारी गाहे-बगाहे कुछ कदम उठाते रहेंगे। किसी भी राष्ट्र के विकास में महिलाओं की अंतरंग भूमिका को लेकर बड़ी-बड़ी बातें होती रहती हैं (महिलाओं को सुरक्षा देने सम्बन्धी क़ानून बनाये जाते हैं) केवल महिलाओं के विकास को समर्पित सरकारी विभाग बनाये जाते हैं। लेकिन वहीं जब पितृसत्ता में निहित हिंसा के खिलाफ महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने की बात आती है तो ये ही सरकारी अधिकारी या तो उदासीन हो जाते हैं या फिर सहभागी।

इसका ये मतलब नहीं है कि औपचारिक समानता महत्वपूर्ण नहीं है। ये उस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है जहां सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराएं महिलाओं को दोयम दर्ज़े की भूमिका में ढकेल देती हैं और उन्हें असुरक्षित बना देती हैं। ये इस सच्चाई की रौशनी में मूल्यवान है कि पकिस्तान के इतिहास में एक ऐसा भी समय था जब महिलाओं के प्रति भेदभाव सरकारी नीति का हिस्सा था। जनरल ज़िया उल हक़ के शासन के दौरान महिलाओं का अधीनस्थ दर्ज़ा बनाये रखना सरकार का सक्रिय एजेंडा था। इस दौरान महिलाओं के खिलाफ भेदभाव की नीतियां अपनायी गईं और हदूद क़ानूनों के तहत उन्हें बंदी बनाया गया।

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