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संकट में है भूजल और नदी का रिश्ता

-वाटर पॉर्टल,

पिछले कुछ बरसों से, नदियों और भूजल का पुराना अन्तरंग कुदरती रिश्ता बुरी तरह बिगड़ा हुआ है। अनदेखी के कारण इन दिनों वह कुछ अधिक ही बदहाल है। यह रिश्ता सुधरने के स्थान पर साल-दर-साल और अधिक बिगड़ रहा है। उसका संकट बढ़ रहा है। रिश्ते के संकटग्रस्त होने के कारण नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह की मात्रा और अवधि घट रही है। पानी की गुणवत्ता बिगड़ रही है। नदी-तंत्र की जैव विविधता पर गंभीर संकट है। यदि देश के विभिन्न भागों की नदियों के नान-मानसूनी प्रवाह की मात्रा तथा उसकी अवधि और वहाँ के भूजल के रिश्ते की बात करें तो नजर आता है कि हिमालय से निकलने वाली नदियों की तुलना में भारतीय प्रायद्वीप की नदियों में रिश्ते की स्थिति, अपेक्षाकृत अधिक खराब है। यदि भारत सरकार द्वारा प्रकाशित नेशनल वाटरशेड एटलस में अनुशंसित नदी वर्गीकरण के आधार पर यही बात कही जाए तो कहना पड़ेगा कि पांचवें क्रम की हाईड्रालाजिकल इकाईयों की छोटी हाईड्रालाजिकल उप-इकाईयों में यह सम्बन्ध सबसे अधिक खराब है। इस खराबी के कारण उन छोटी हाईड्रालाजिकल उप-इकाईयों के माध्यम से बडी इकाईयों को मिलने वाला योगदान कम/खत्म हो रहा है। इस कारण चैथे, तीसरे, दूसरे और पहले क्रम की नदियों में नान-मानसून प्रवाह की अवधि और मात्रा क्रमशः कम हो रही है। यह कमी हिमालय से निकलने वाली नदियों में अपेक्षाकृत कम है। इसके अलावा, भूजल के अतिदोहित, क्रिटिकल और सेमी-क्रिटिकल विकासखंडों में भी भूजल के उत्तरोत्तर बढ़ते दोहन ने नदी और भूजल के सनातन रिश्तो को बदहाली में पहुँचाया है। उसका असर उन विकासखंडों की नदियों, कुओं, नलकूपों, स्टापडेमों और तालाबों में दिख रहा है। उस सम्बन्ध के संकटग्रस्त होने के कारण अधिकांश नदियाँ जिनमें लगभग एक सदी पहले तक गर्मी के दिनों में भी नावें चलती थीं, मानसूनी बनकर रह गई हैं। अब गर्मी के दिनों में कावेरी, महानदी, नर्मदा जैसी बडी नदियों को, उनके प्रारंभिक मार्ग में, पैदल पार करना संभव हो गया है। यह स्थिति देखकर लगता है, नदी और भूजल के कुदरती सनातन रिश्ते को मानो ग्रहण लग गया है।  

भारत में लगभग एक सदी पहले तक भूजल और नदी का कुदरती रिश्ता पूरी तरह महफूज था। उसके महफूज होने के कारण गैर-मानसूनी प्रवाह महफूज था। उसके असर से अधिकांश नदियाँ साल भर मुक्त भाव से कल कल कर बहतीं थीं। उनका पानी स्वास्थ्यवर्धक और कांच की तरह पारदर्शी होता था। बरसात की सारी अनिश्चितताओं के बावजूद गर्मी के मौसम में मराठवाडा, कालाहांडी, अनन्तपुर और बुन्देलखंड की अधिकांश छोटी-बड़ी नदियाँ जीवित बनी रहती थी। कभी-कभी अल्प समय के लिए अकाल आते थे पर वे भी नदियों में पानी का ऐसा संकट पैदा नही कर पाते थे जैसा संकट, मौजूदा समय में बिना अकाल के भी, अमूनन हर साल, भारत के बहुत सारे इलाकों में देखने को मिलता है। गौरतलब है कि उन दिनों, अकालों की उपस्थिति में भी नदियों के पानी की गुणवत्ता अच्छी बनी रहती थी। नदियों का आज जैसा हाल नहीं होता था। पिछली एक सदी में सब कुछ बदल गया। नदियों के पानी में, लगातार खराब होती गुणवत्ता का आयाम भी जुड़ गया है। यह असर बरसात बीतने के साथ प्रारंभ होता है, प्रवाह की कमी के साथ बढ़ता है, गर्मी में अपने चरम पर पहुँचता है और अगले मानसून के आने के बाद ही काफी हद तक समाप्त होता है।

पिछली सदी के मध्य तक सूखे दिनों में एक्वीफरों से जो भी पानी बाहर आता था, वह मौटे तौर पर कुदरती तरीके से बाहर आता था। धीरे-धीरे उसकी मात्रा में कमी आती थी। इसके बावजूद वह नदियों और झरनों में सामान्यतः जून माह तक बहता था। 

सूखे दिनों में भूजल का दोहन कम क्षमता वाले परम्परागत साधनों (बाल्टी, पर्शियन व्हील इत्यादि) से किया जाता था। दोहन की मात्रा बेहद कम थी। उस दोहन से भूजल भंडार बहुत कम खाली होते थे इसलिए जल स्रोत साल भर जिन्दा रहते थे। नदियों और भूजल का रिश्ता सुरक्षित तथा संकट मुक्त रहता था। 

भूजल के दोहन का इतिहास बताता है कि परम्परागत साधनों के बाद प्रचलन में सेन्ट्रीफ्यूगल पम्प आये। उनके बढ़ते उपयोग के कारण भूजल की निकासी बढ़ी। सन 1953 के बाद, देश के कछारी इलाकों में एक्वीफरों का अध्ययन और नलकूपों का प्रचलन बढ़ा। हरित क्रान्ति के बाद भारत में भूजल दोहन की पृवत्ति को पंख लगे। खेती में भूजल का दोहन अप्रत्याशित गति से बढ़ा। उद्योगों, बढ़ती आबादी और पाश्चात्य जीवनशैली अपनाने के कारण पानी की खपत बेतहाशा बढ़ी। 

केन्द्र सरकार के जल संसाधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, कुदरत, हर साल, भारत को लगभग 4000 लाख हैक्टर मीटर पानी उपलब्ध कराती है। इसमें से लगभग 1963 लाख हैक्टर मीटर पानी, रन-आफ के रुप में बरसात के दिनों में नदियों में बहता है। सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड की 2017 की ग्राउन्ड वाटर रिपोर्ट (Dynamic Ground Water Resources of India, 2017) के अनुसार देश में सकल भूजल रीचार्ज की मात्रा लगभग 431.86 लाख हैक्टर मीटर है। यह पानी धरती की कोख में स्थित एक्वीफरों में जमा होता है। एक्वीफरों में जमा होने वाले पानी की मात्रा रन-आफ का लगभग 22 प्रतिशत है। सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड के अनुसार उसमें से अधिकतम 392.7 लाख हैक्टर मीटर पानी बाहर निकाला जा सकता है। सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड के अनुसार उथले एक्वीफरों से बाहर आने वाला पानी (भूजल), जो मई-जून तक अधिकांश नदियों और झरनों को जिन्दा रखता है, की संभावित मात्रा लगभग पांच प्रतिशत (19.64 लाख हैक्टर मीटर) होती है। यह तभी संभव हो सकता है जब भूजल भंडारों में संचित पानी की मात्रा पूरे साल में कभी भी 373.06 लाख हैक्टर मीटर से कम नही हो। उथले एक्वीफर नदियों को लगातार पानी उपलब्ध कराते रहें। गौरतलब है कि यह स्थिति लगभग एक सदी पहले तक मौजूद थी। 

सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड, भारत सरकार के मौजूदा आंकड़ों के अनुसार भारत में हर साल लगभग 248.69 लाख हैक्टर मीटर भूजल का दोहन होता है। यह दोहन निकाले जा सकने वाले पानी की मात्रा का लगभग 63.33 प्रतिशत है। कुदरती डिसचार्ज की मात्रा अलग है। भूजल का यह दोहन ही नदी में प्रवाह का असली संकट है। यदि इसी तरह भूजल का दोहन बढ़ता रहा तो देश गंभीर संकट की चपेट में आ जावेगा। उसे केपटाउन बनने से रोकना असंभव हो जावेगा।

उल्लेखनीय है कि रिश्ते की अनदेखी के कारण, नदियाँ, मौटे तौर पर, नेशनल वाटरशेड एटलस में दर्ज पांचवीं, चैथी, तीसरी, दूसरी और पहली श्रेणी की नदियों के क्रम में सूख रही हैं। उनका योगदान क्रमशः कम हो रहा है। अनुमान है कि पहली श्रेणी की नदियाँ अर्थात गंगा जैसी बडी नदियाँ सबके बाद सूखेंगी लेकिन उनके प्रारंभिक मार्ग में उनका सूखना अस्वाभाविक नहीं होगा। दक्षिण की नदियों पर यह असर सबसे पहले होगा। नदियों का बढ़ता प्रदूषण अन्ततः उनके पानी को पूरी तरह अनुपयोगी बना देगा। 

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