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हाथरस मामले में अब जो हो रहा है वह भी किसी दुष्कर्म से कम नहीं है

-सत्याग्रह,

बलात्कार जैसी घटना पर पुलिस और प्रशासन की प्रतिक्रिया उस समाज से अलग नहीं होती जिसे वह प्रशासित करता है. और ऐसे मामलों में किसी समाज की प्रतिक्रिया को समझने के लिए यह देखना ज़रूरी है कि वह अपनी बेटियों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है. हाथरस मेरा अपना गृह ज़िला है. अपने दो दशकों के निजी अनुभव से मैं कह सकती हूं कि इस क्षेत्र में लड़की एक पूरी व्यक्ति नहीं होती. उसी तरह, जिस तरह आज तक दलित भी यहां एक पूरा व्यक्ति नहीं बन सका है. दोनों को हमेशा एक खास चश्मे से देखा जाता है, उनसे एक खास तरीके के व्यवहार की अपेक्षा की जाती है और आवश्यकता पड़ने पर उनके चरित्र और अस्तित्व पर बड़ी आसानी से उंगली उठाई जा सकती है.

लड़की के मामले में चरित्र का सवाल अपने आप ही अस्तित्व का भी बन जाता है. और वह अगर दलित भी हो तो ऐसा कितनी आसानी से हो सकता है समझ पाना मुश्किल नहीं है. ऐसे मामलों में न्याय हो पाना वैसे भी मुश्किल होता है, ऊपर से अगर ये राजनीति और टीवी मीडिया की दुधारू भी बन जाएं तब चीज़ें और भी उलझ जाती हैं.

उन्नाव मामले में हमने जो होते देखा, हाथरस मामले में भी वही बात सामने आती है. आम लोगों की सहानुभूति पीड़िता और उसके परिवार के साथ नहीं दिखती. स्थानीय लोगों में इस अपराध के खिलाफ नाराज़गी नहीं दिखती. वे बार-बार यही जताने की कोशिश करते हैं कि लड़की चरित्रहीन थी और परिवार पैसे के लालच में निर्दोष लोगों को फंसा रहा है. इस नैरेटिव को ज़मीन देने के लिए वे कई तरीके की दलीलों का सहारा लेते हैं.

तीन अक्टूबर की सुबह जब मैं भूलगढ़ी पहुंची तो वहां मीडिया का जमावड़ा लगा हुआ था. तब तक किसी को गांव के भीतर जाने की अनुमति नहीं थी. लेकिन उस दिन कई दिनों के बाद इसकी अनुमति दे दी जाती है. मुख्य सड़क से गाव तक करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी है और इस रास्ते पर दोनों तरफ बाजरा और धान के खेत हैं. यहीं बांई तरफ सड़क से कुछ 300 मीटर भीतर की ओर शीशम के पेड़ हैं. यहीं खेतों के बीच की नाली में, 14 सितंबर के दिन पीड़िता को घायल हालत में पाया गया था.

गांव में घुसते ही उस परिवार का घर दिखाई देता है, जिसके लड़कों पर बलात्कार का आरोप है. उसके बाद वाल्मीकि समाज के चार घर हैं. दोनों ही परिवारों की आर्थिक स्थिति लगभग एक सी है. ग्रामीणों के मुताबिक सवर्ण ठाकुरों और ब्राह्मणों की बहुसंख्या वाले इस गांव में वाल्मीकि बस्ती के पास बसे इस ठाकुर परिवार को भी दलित जैसा ही समझा जाता है. दलितों की तरह इस परिवार के पास नाममात्र की ज़मीन है और इसके सदस्यों की जीविका भी मजदूरी से ही चलती है.

पीड़िता के घर मीडिया की इतनी भीड़ है कि परिवार से बातचीत लगभग असंभव है. कुछ रिश्तेदारों से बातचीत होती है, वे 29 सितंबर को पीड़िता की मौत के बाद से यहां आए हुए हैं. वे बताते हैं कि उनके परिवार को धोखा देकर मृत शरीर को पहले तो अस्पताल से निकाला गया और फिर उन्हें नहीं सौंपा गया. बहुत मिन्नतें करने के बाद भी प्रशासन ने उन्हें उनकी बेटी का चेहरा देखने, उसका रीति-रिवाज़ के साथ अंतिम संस्कार करने की इजाज़त नहीं दी. मृतका की बुआ कहती हैं, “उन्होंने कहा कि हम सिर्फ लड़की की मां या उसके बाप में से किसी एक को ही चेहरा दिखाएंगे. पुलिस हमें रात को ही दाह संस्कार करने के लिए मजबूर कर रही थी इसलिए हम उनके साथ नहीं गए.”

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