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बीजेपी के नेताओं का केंद्रीय विषय मुसलमान विरोधी नफ़रत क्यों है?

-सत्यहिंदी, 

ध्रुवीकरण को भी रोजाना का अभ्यास बनाना पड़ता है। उसे रोज़मर्रा की भाषा में इस कदर शामिल कर दिया जाता है कि वह समाज का स्वभाव बन जाए। इसलिए मसला मात्र चुनाव में अपने लिए येन केन प्रकारेण वोटर बनाने का नहीं है। हमारे बहुत सारे मित्र इस तरह के बयानों को बहुत तवज्जो नहीं देने की सलाह देते हैं। 

इस स्तंभ की ज्यादातर कड़ियों का विषय मुसलमान विरोधी हिंसा रहा है। बल्कि यह आरोप भी लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में इन पंक्तियों के लेखक ने जो कुछ भी लिखा है, उसका बहुलांश भारत में बढ़ती हुई मुसलमान और ईसाई विरोधी हिंसा से ही संबंधित है। कई मित्रों को यह दुहराव लगता है और बहुतों को इससे ऊब होती है। 

अभिनय और लेखन 
ऐसी प्रतिक्रिया देख-सुनकर लगने लगता है कि पाठक लेखन को अभिनय की तरह का ही कार्य मानते हैं। जैसे अभिनेता से उम्मीद की जाती है कि उसकी भूमिकाओं में विविधता होगी वैसे ही लेखक से अपेक्षा रहती है कि उसके विषयों में बहुलता होगी। सिर्फ खलनायक की भूमिका कोई निभा रहा हो, या कोई सिर्फ पुलिस अफ़सर का ही रोल निभाता रहे तो ऐसे अभिनेता की अभिनय क्षमता पर संदेह होने लगता है।

यह चेतावनी भी दी जाती है कि इस प्रकार आपको एकविषयी लेखक मान लिया जाएगा और आपको पढ़ा नहीं जाएगा। यह चिंता और चेतावनी वाजिब है। एकरसता का खतरा बड़ा है और अभिनेता हो या लेखक, वह इससे बचना चाहता है।
विवेकशील पाठक की तलाश
अगर वह एक ही विषय के दायरे में चक्कर लगाता रहेगा तो उसे पाठक भी एक ही किस्म के मिलेंगे। इसके साथ सवाल उसके नज़रिए का भी है। अगर वह एकपक्षीय है या दिखलाई पड़ता है तो भी उसके पाठक एक ही तरह के होंगे। यह किसी लेखक के लिए बहुत सुखद नहीं है। लेखक को वफादार पाठक नहीं चाहिए, वह विवेकशील पाठक की तलाश में रहती या रहता है।

लेकिन इसके साथ हमने यह भी पढ़ा है कि एक कवि पूरी ज़िंदगी एक ही कविता लिखता रहता है, या एक कथाकार एक ही कहानी कहते जीवन गुजार देता है।

लेखन किंतु मात्र अपने लिए पाठकों की रुचि बनाए रखने का मामला नहीं है। विषय का चयन लेखक के बारे में तो कुछ बताता ही है, उससे उसके वक्त के बारे में भी मालूम होता है। मुक्तिबोध ने लिखा है कि विषयों की कमी की समस्या नहीं, लेखक को तो उनका आधिक्य सताता है। प्रश्न चयन का है। इससे उसकी लेखकीय नैतिकता का अंदाज मिलता है।
चयन का प्रश्न क्या सिर्फ लेखक के संदर्भ में महत्वपूर्ण है? वह राजनीतिज्ञों के संदर्भ में भी उठाया जा सकता है। राजनीतिज्ञ किस विषय को चुनता है और किसे दुहराता रहता है। उसके इस चयन से उसकी भी राजनीति और नैतिकता का पता चलता है।
परिवार नियोजन की सलाह
दो रोज़ से असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के एक बयान पर चर्चा चल रही है। उन्होंने असम के (बांग्लाभाषी) मुसलमानों को सलाह दी कि वे परिवार नियोजन अपनाएँ और जनसंख्या नियंत्रण में सहयोग करें। इससे ग़रीबी कम करने में मदद मिलेगी। सरमा ने कहा कि जनसंख्या बढ़ने से कई तरह की समस्याएँ होती हैं, अपराध बढ़ते हैं और समाज में हिंसा बढ़ती है। 

मुख्यमंत्री ने कहा कि वे ‘उनकी’ भी समस्या समझते हैं। उनकी आबादी में ‘जनसंख्या विस्फोट’ के कारण उन्हें रहने की जगह की और बाकी संसाधनों की ज़रूरत पड़ती है। इस वजह से ज़मीन का अतिक्रमण होता है। इससे विवाद और हिंसा होती है। यह सब रुके, इसके लिए वे मुसलमान औरतों को शिक्षित करना चाहते हैं।

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