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विमर्श : इतिहास पर छापा

-आउटलुक,

“हिंदुत्ववादी शक्तियां इतिहास को विचारधारा के अनुसार बदलने के लिए राजसत्ता का इस्तेमाल करती हैं”

पिछली शताब्दी के शुरुआती वर्षों से ही हिंदू सांप्रदायिक शक्तियां भारत के अतीत को अपने चश्मे से देखकर इतिहास को अपनी विचारधारा के अनुसार बदलने की कोशिश करती रही हैं। पुरुषोत्तम नागेश ओक ने पांच दशकों से भी अधिक समय तक इस अभियान का नेतृत्व किया और कई पुस्तकें लिखीं। 1964 में ‘भारतीय इतिहास पुनर्लेखन संस्थान’ की स्थापना करके इस अभियान को संस्थागत एवं संगठित रूप देने की कोशिश की क्योंकि उनका आरोप था कि इतिहासकारों ने झूठा इतिहास लिखा है। लेकिन विद्वत जगत में उन्हें किसी ने गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि उनकी स्थापनाएं एकदम अजीबोगरीब और निराली थीं।

उन्हें पूरी दुनिया हिंदू नजर आती थी। मक्का में मुसलमानों का पवित्रतम धार्मिक स्थान काबा उनकी राय में शिवमंदिर था, जिसका निर्माण उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने किया था, ईसाई धर्म यानी क्रिश्चियनिटी उनके लिए कृष्णनीति थी, लात्विया की रिगा नदी का नाम ऋग्वेद के आधार पर रखा गया था, चेक नगर प्राग का नाम प्रागज्योतिषपुर से निकला था आदि-आदि। पी.एन. ओक ने ताजमहल पर एक पुस्तक लिख कर सिद्ध करने की कोशिश की कि उसका मूल नाम तेजोमहालय था और वह राजपूत राजा द्वारा बनवाया गया शिव मंदिर था। इसी तरह उन्होंने दिल्ली की कुतुब मीनार, लाल किला और जामा मस्जिद जैसी ऐतिहासिक इमारतों को भी हिंदू राजाओं द्वारा निर्मित बताया। ताजमहल के बारे में अदालतों में कई मुकदमे दायर किए गए। स्वयं ओक ने भी 2000 में सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में गुहार लगाई। लेकिन 2015 में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा को अदालत में कहना पड़ा कि ताजमहल के हिंदू मंदिर होने का कोई साक्ष्य नहीं है। संघ विचारक कहे जाने वाले एक वकील ने इसके बाद भी टीवी चैनलों पर धड़ल्ले से दावा किया कि ताजमहल, जामा मस्जिद, कुतुब मीनार और लाल किला- सभी हिंदू इमारतें हैं।

जब भी हिंदुत्ववादी शक्तियां सत्ता में आती हैं, वे सबसे पहले इतिहास को अपनी विचारधारा के अनुसार बदलने के लिए राजसत्ता का इस्तेमाल करती हैं। 1977 में पहली बार उन्हें केंद्र सरकार में जगह मिली और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार के शिक्षामंत्री प्रताप चंद्र चंदर ने बिपन चंद्र, रोमिला थापर और सतीश चंद्र जैसे इतिहासकारों द्वारा एनसीईआरटी के लिए लिखी पाठ्यपुस्तकों को वापस लेकर उनके पुनर्लेखन का काम शुरू करवा दिया, जिसका देश भर में व्यापक विरोध हुआ। संयोग से वह सरकार जून 1979 में गिर गई और मिशन अधूरा रह गया। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के नाम से एक संस्था का गठन करके इस दिशा में संगठित प्रयास शुरू कर दिया। नियमित रूप से इतिहास की कार्यशालाएं आयोजित करके एनसीईआरटी को उनके निष्कर्ष संस्तुतियों के रूप में भेजे जाने लगे और आग्रह किया जाने लगा कि पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन किए जाएं। इनका पहला लक्ष्य था हड़प्पा और वैदिक सभ्यता को एक सिद्ध करना। संघी इतिहासकार स्वराज प्रकाश गुप्त के मार्गदर्शन में एक स्वयंभू इतिहासकार भगवान सिंह ने इस काम को अंजाम देने के लिए दो खंडों में एक पुस्तक लिख डाली। अमेरिका में रहने वाले एक कंप्यूटर वैज्ञानिक ने कंप्यूटर द्वारा फोटोशॉप करके हड़प्पाकालीन सभ्यता में घोड़े की उपस्थिति सिद्ध करने का फ्रॉड भी कर डाला। इसके मूल में यह सिद्ध करने की जिद है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे और बाहर से नहीं आए थे।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम बदलने के लिए निर्देश जारी किए हैं। जैसा मुरली मनोहर जोशी के कार्यकाल में हुआ था, इस बार भी किसी को नहीं पता कि इन निर्देशों को तैयार करने के पीछे किन इतिहासकारों का दिमाग है

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन के लिए विशेषज्ञों की समिति गठित की लेकिन उसके सदस्यों के नाम गुप्त रखे। कारण यह था कि तब तक संघ के हिंदुत्व की ओर ऐसे इतिहासकारों का झुकाव नहीं हुआ था जिनकी अकादमिक जगत में प्रतिष्ठा हो। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने घोषणा कर डाली कि प्राचीन भारत में विज्ञान बहुत उन्नत अवस्था में था जिसका प्रमाण है कि प्लास्टिक सर्जरी के द्वारा गणेश को हाथी का सिर लगाया गया। जुलाई 2014 में इतिहास अनुसंधान परिषद का अध्यक्ष, इतिहास संकलन योजना के सदस्य वाइ. सुदर्शन राव को बनाया गया। इस संस्था के तीन अन्य सदस्य भी परिषद के सदस्य बनाए गए। अध्यक्ष बनते ही राव ने घोषणा की कि ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्यों में वर्णित घटनाएं वास्तव में घटित हुई थीं। यानी, मोदी सरकार के आते ही आधिकारिक तौर पर मिथक और यथार्थ के बीच का अंतर मिटा दिया गया। इसकी परिणति तब दिखी जब राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार ने हल्दी घाटी के युद्ध में राणा प्रताप की सेना को अकबर की सेना पर विजय दिला दी।

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