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आइएमएफ का मूल्यांकन करने वाले चाहते हैं कि भारत की तर्ज पर पूंजी नियंत्रण दुनियाभर में अपनाया जाये

-द प्रिंट,

पिछले तीन महीने में भारत में पूंजी की आवाजाही में भारी वृद्धि देखी गई है. मार्च से लेकर मई 2020 तक कोरोना वायरस के चलते औनेपौने भाव में बिक्री हुई जिनसे भारत से विदेशी पूंजी बाहर गई. जून से यह दिशा उलट गई, जून में कुल पोर्टफोलियो निवेश 3.4 अरब डॉलर के बराबर था, जो अगस्त में बढ़कर 6.7 अरब डॉलर के बराबर हो गया. सितंबर में मामूली पूंजी बाहर गई लेकिन अक्टूबर में कुल पोर्टफोलियो फ़्लो फिर बढ़ गया.

भारत में पूंजी की आवक का प्रमुख कारण यह है कि कोविड-19 महामारी के आर्थिक प्रभावों से निबटने के लिए विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों ने रियायतें देने वाले कदम उठाए. दूसरी वजह, खासकर अगस्त में आवक में वृद्धि की, यह रही कि आइसीआइसीआइ बैंक और एचडीएफसी बैंक जैसे बड़े कॉमर्शियल बैंकों ने ‘क्वांटिटेटिव इन्स्टीट्यूशनल प्लेसमेंट’ (क्यूआइपी) के जरिए पूंजी बढ़ाई, जिससे पूंजी की भारी आवक हुई.

 

रिजर्व बैंक पूंजी की स्वतंत्र गतिशीलता के पक्ष में

अगस्त के तीसरे सप्ताह तक रिजर्व बैंक डॉलर की खरीद करता रहा ताकि रुपये की कीमत न बढ़े. नतीजतन, 1 डॉलर का मूल्य 75 रुपये के करीब बना रहा. अगस्त के आखिरी सप्ताह से सरकारी हस्तक्षेप कम हुआ तो 1 डॉलर का मूल्य 73 रुपये के बराबर हो गया. 1 सितंबर को यह 73 रुपये से नीचे 72.87 रुपये पर पहुंच गया. विदेशी मुद्रा से संबंधित डेटा बताता है कि अगस्त में रिजर्व बैंक द्वारा डॉलर की कुल खरीद इससे पिछले महीने के 15.97 अरब डॉलर से घटकर 5.3 अरब डॉलर पर पहुंच गई.

पिछले कुछ सप्ताह से ऐसा लग रहा है कि रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को काबू में रखने के लिए रुपये की कीमत बढ़ाने की नीति पर चल रहा है. बाज़ार को संयमित स्थिति में रखने के बारे में उसके एक नोट में कहा गया है कि ‘रुपये की कीमत में हाल में हुई वृद्धि से आयातित मुद्रास्फीति को काबू में रखने में मदद मिली है.’ फिलहाल मुद्रा नीति की सीमाओं के कारण रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को काबू में रखने के लिए करेंसी नीति का सहारा ले रहा है.

खुली अर्थव्यवस्था की मैक्रो (वृहत) अर्थनीति का एक महत्वपूर्ण सूत्र कहता है कि ‘एक त्रिकोण असंभव’ है, यानी कोई भी देश स्थिर विनिमय दर, स्वतंत्र मुद्रा नीति और खुला पूंजी खाता का मेल बनाकर नहीं रख सकता. ऐसा लगता है कि रिजर्व बैंक ने फिलहाल स्वतंत्र मुद्रा नीति के साथ-साथ पूंजी के मुक्त प्रवाह की खातिर विनिमय दर को नियंत्रित करना छोड़ दिया है. पहले, वह इस ‘असंभव त्रिकोण’ को नियंत्रित करने के लिए पूंजी नियंत्रण का सहारा लेता था. अमेरिका में 2013 में हुए ‘टेपर टैंट्रम’ के दौरान रिजर्व बैंक ने पूंजी के बाहर जाने पर रोक लगाई थी, मुद्रा नीति को सख्त किया था ताकि रुपये की कीमत न घटे.

आइएमएफ के मुल्यांकनकर्ता क्या कह रहे  

आइएमएफ के इंडिपेंडेंट इवैलुएशन ऑफिस (आइईओ) के प्रकाश लौंगानी और श्रीराम बालासुब्रमन्यन के एक ताज़ा लेख में कहा गया है कि किसी भी देश की नीतियों के तरकश में एक तीर पहले ही पूंजी नियंत्रण लागू करने का भी होता है. लेख में कहा गया है कि भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए खुला पूंजी खाता लाभकारी तो है मगर वह पूंजी की आवक में वृद्धि के कारण पैदा होने वाली वित्तीय अस्थिरता की समस्या से निबटने के लिए पहले ही पूंजी नियंत्रण का कदम उठा सकता है. लेखकों का कहना है कि आइएमएफ अगले साल जब पूंजी नियंत्रण पर अपने अधिकृत रुख की समीक्षा करे तो वह इस तथ्य को ध्यान में रखे.

आइएमएफ के वार्षिक आर्टिकल-4 विमर्श में हाल की घटनाओं, सामने आए विचारों और सदस्य देशों के साथ जुड़े जोखिमों की समीक्षा की गई है और मैक्रो अर्थनीतियों पर सलाह दी गई है. आर्टिकल-4 रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण सलाह पूंजी नियंत्रण के बारे में दी गई है. आइईओ की ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में नीति निर्माता लोग जब पूंजी के प्रवाह के बारे में फैसला कर रहे थे तब आइएमएफ की सलाह उनके कितने काम आई थी.

भारत में पूंजी नियंत्रण की पुरानी जटिल व्यवस्था मौजूद रही है. पूंजी नियंत्रण के बारे में कुछ तय करने में इसका ध्यान रखा जाए. अध्ययन के सिलसिले में जिन भारतीय अधिकारियों से बात की गई उन्होंने पूंजी नियंत्रण के मामले में आइएमएफ की सलाह पर चिंता जाहिर की. उनका विचार था कि प्रशासनिक नियंत्रणों की व्यवस्था बोझिल और अपारदर्शी है. यह नकदी के विकास में और आर्थिक वृद्धि में बाधा डाल कर बड़े बोझ डालता है. इन बोझों का आइएमएफ ने हिसाब नहीं रखा और पूंजी नियंत्रण के उपायों को सिर्फ वित्तीय स्थिरता के नजरिए से तौला.

आइईओ के लेख में कोरिया और पेरू का उदाहरण दिया गया है, जिन्होंने वित्तीय स्थिरता के लिए पूंजी नियंत्रण का संतुलित कदम पहले ही उठा लिया. ऐसे देशों के लिए प्रसंग के मुताबिक पूंजी नियंत्रण का सहारा लेना उपयोगी साबित हुआ. लेकिन भारत जैसे देश में, जहां नियामकों, क़ानूनों, उपायों, और नौकरशाही रोडों की भरमार है, पूंजी नियंत्रण का पहले ही कदम उठाने का फैसला सोच-समझ कर किया जाना चाहिए.

पूंजी नियंत्रण पर जो कुछ लिखा गया है उसमें ‘दरवाजों’ (प्रसंगवश नियंत्रण) बनाम ‘दीवारों’ (पुराने नियंत्रणों) में फर्क किया गया है. उनमें बुनियादी अंतर है इसलिए उनके उपयोगी होने के बारे में जो बहस हो उसमें इस अंतर का ख्याल रखा जाए.
आइएमएफ ने पूंजी नियंत्रण को एक नीतिगत उपाय के रूप में लेने की जो सिफ़ारिश की है उसकी आइईओ द्वारा समीक्षा उपयोगी है. किसी भी देश के लिए पूंजी नियंत्रण का उचित ढांचा प्रारम्भिक स्थितियों पर आधारित हो सकता है. पूंजी नियंत्रण वित्तीय स्थिरता हासिल करने में काम आ सकता है लेकिन भारत के अनुभव बताते हैं कि अगले वर्ष अपनी समीक्षा में आइएमएफ अगर पारदर्शिता और कानून के शासन वाले पहलुओं पर भी ध्यान दे तो बेहतर होगा.

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