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गैर वाजिब बटवारा संसाधनों का पुनर्वितरण हमारे भविष्य के लिए अनिवार्य

-कारवां,

2019 में मैंने ट्विटर पर एक इन्फोग्राफिक देखा जिसमें पेड मैटरनिटी लीव (वैतनिक मातृत्व अवकाश) देने वाले देशों के नाम थे. पता चला कि संयुक्त राज्य अमेरिका वैतनिक मातृत्व अवकाश नहीं देता है. इस सूची में भारत का स्थान ब्रिटेन के बाद, दूसरे नंबर पर है. हमारे यहां 26 सप्ताहों का वैतनिक मातृत्व अवकाश मिलता है.

मुझे यह बात जरूर खली कि मातृत्व अधिकार अधिनियम केवल संगठित क्षेत्र में लगी औरतों के लिए है लेकिन दिखाया यूं जा रहा है मानो यह कानून सभी औरतों के लिए है. खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत अन्य भारतीय औरतों को सरकार से 6000 रुपए प्रति बच्चा प्राप्त होता है लेकिन 2013 में पारित हुआ यह कानून 2017 में जा कर ही लागू हो सका. उस वर्ष सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के वादे को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (पीएमएमवीवाई) को अधिसूचित किया. एक ओर औपचारिक रोजगार में शामिल महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश 12 सप्ताह से बढ़ा कर 26 सप्ताह करने के लिए मातृत्व अधिकार अधिनियम में संशोधन किया गया था, वहीं दूसरी ओर मातृ वंदना योजना के दायरे में आने वाली औरतों को मिलने वाले लाभों को कम कर दिया गया। अब मातृत्व लाभ के रूप में प्रति बच्चा 6000 रुपए के बजाए उन्हें केवल 5000 रुपए दिए जा रहे हैं. वह भी तीन किश्तों में और सिर्फ पहले बच्चे पर.

जरा सोचिए, संगठित क्षेत्र में रोजगार पा रहीं मेरी जैसी औरतों, मैं सरकारी विश्वविद्यालय में पढ़ाती हूं, का 26 सप्ताह का वैतनिक मातृत्व अवकाश अन्य औरतों को मिलने वाली राशि का कम से कम सौ गुना है. फिर भी जब पीएम मातृ वंदना योजना की घोषणा की गई, तो कुछ खास तरह के जानकारों ने दावा किया कि नगद प्रोत्साहन देने से औरतें ज्यादा बच्चे पैदा करेंगी.

दरअसल समस्या यह नहीं है कि भारत में कुछ औरतों को विश्व स्तरीय मातृत्व लाभ मिलता है. दिक्कत यह है कि इस तरह के लाभों से सभी औरतों को सार्वभौमिक अधिकार के रूप में लंबे समय तक वंचित रखा गया और इसका विरोध भी किया गया. उस समाज को क्या कहेंगे जो अमीरों को सब कुछ देता है लेकिन जरूरतमंदों का एक-एक पैसा काट लेता है?

मातृत्व लाभों में अंतर एक पैटर्न को दर्शाता है. अर्थशास्त्रियों में, गैरबराबरी को जांचने के लिए सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला तरीका गिनी कोफिसिएंट है, जो आय, धन और व्यय में असमानताओं को मापता है. भारत में 1990 के दशक से यह असमानता संख्या लगातार बढ़ रही है. अन्य संकेत भी हैं जो बताते हैं कि बराबरी को लेकर देश का प्रदर्शन बहुत खराब है. उदाहरण के लिए फ्रांसीसी अर्थशास्त्रियों थॉमस पिकेटी और लुकास चांसल द्वारा किए गए काम से पता चलता है कि भारत में शीर्ष एक प्रतिशत के पास राष्ट्रीय आय का कुल हिस्सा बढ़कर 22 प्रतिशत हो गया है. 1980 में यह छह प्रतिशत था.

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