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‘देश ख़तरे में है’ का हौवा स्वतंत्र विचारधारा वालों को प्रताड़ित करने का बहाना है

-द वायर,

देश में आजकल हर चीज़ खतरे में दिखती है. चाहे धर्म हो, संस्कृति हो, सांप्रदायिक सद्भाव हो या समाज में शान्ति हो, सब बात-बात पर खतरे में बताए जाते हैं. हमारी स्त्रियां तक खतरे में बताई जाती हैं कि विधर्मी उन्हें बहला-फुसलाकर शादी करके धर्म परिवर्तन करा देते हैं.

कितनी बार तो हमारा भूतकाल, जो बदल नहीं सकता, वो भी खतरे में बताया जाता है क्योंकि बहुसंख्यकवादी लोग ये आरोप लगाते हैं कि लिबरल (उदारवादी) लोग इतिहास को अलग ही नजरिये से देख रहे हैं.

और जब ये सब खतरे में नहीं होता तो देश की एकता और अखंडता, आंतरिक सुरक्षा या विकास ही खतरे में पड़ जाते हैं. तुर्रा यह कि इतने खतरों में निरंतर चरमराते रहने के बावजूद भारत के तथाकथित ‘विश्वगुरु’ होने का दावा पेश किया जाता है.

138 करोड़ की आबादी का ये देश, जिसका रक्षा बजट 4,780 अरब रुपयों का है, महज दो लाइन के ट्वीट, वॉट्सऐप संदेश, ईमेल, फेसबुक पोस्ट, लेख, किताब, गाने, नाटक या फिल्म से खतरे में पड़ जाता है.

क्या ये घोर विरोधाभास नहीं है? तब हम किस बात के और कैसे ‘विश्वगुरु’ हुए?

दुनिया का कोई भी देश अपने ही नागरिकों पर देश को नुकसान पहुंचाने के आरोप में इतने केस दर्ज नहीं करता जितना ये प्राचीन सभ्यता वाला महान ‘विश्वगुरु’ करता है.

अगर वे सारे केस सत्य हैं तब तो दो ही बातें हो सकती हैं. या तो देश में वास्तव में इतने गद्दार लोग भरे पड़े हैं, या फिर इस देश के निर्माण में ही कोई मूलभूत गड़बड़ी है.

अगर इतने सारे लोग गद्दार हैं तो इसका मतलब हुआ कि हमारे सारे तथाकथित संस्कार, धर्म, संस्कृति और शिक्षा बेकार गए हैं जो 73 वर्षों में भी उनका हृदय परिवर्तन न कर सके.

दूसरी तरफ अगर देश के निर्माण और उसकी रचना में ही कोई गड़बड़ी है तो हम एक राष्ट्र को नहीं एक शव को या एक विफल प्रयोग को ढोये चले जा रहे हैं.

दोनों ही परिस्थितियां निराशाजनक हैं और उनसे यही ध्वनि निकलती है कि फिर तो कुछ नहीं किया जा सकता.

अगर इस देश की जनता और उसके कर्णधार इन तर्कों की सत्यता को स्वीकार नहीं करते तब तो मात्र यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये सारे केस फर्जी हैं और उन लोगों को प्रताड़ित करने के लिए लादे गए हैं जिन्हें सरकार स्वतंत्र विचारधारा वाला और बहुसंख्यकवाद से इत्तेफाक न रखने वाला समझती है और उस नाते उन्हें कुचल देना चाहती है.

इस प्रकार के ‘शिकार’ जैसा कि विशेषकर के गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) और राजद्रोह के क़ानून के दुरुपयोग के प्रसंग में देखा गया है, प्रायः मुस्लिम, तथाकथित वामपंथी और ‘शहरी नक्सल’, विचारक, लेखक, कवि, विद्यार्थी, कार्यकर्ता और समाज के अन्य उपेक्षित तबके होते हैं.

दूसरे शब्दों में, ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसके विचार बहुसंख्यकवाद के विचारों से मेल नहीं खाते या जिसकी कोई समस्या या व्यथा सरकार या बहुसंख्यकों को किसी भी कारण से नापसंद होती है, उसे तत्क्षण देशद्रोही या आतंकवादी करार करके शासन की पूरी ताक़त उसे कुचलने के लिए झोंक दी जाती है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड बोर्ड (एनसीआरबी) के ‘क्राइम इन इंडिया-2019’ के अनुसार 2017 से 2019 के बीच देश में राष्ट्र के विरुद्ध किए गए अपराधों के आरोपों में 25,118 यानी प्रति वर्ष औसतन 8,533 मामले दर्ज किए गए. इनमें 27.8% अकेले उत्तर प्रदेश से आते हैं.

राष्ट्र के विरुद्ध किए गए इन अपराधों में 2019 में 93 मामले राजद्रोह (धारा 124 ए आईपीसी), 73 मामले देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने (धारा 121 आईपीसी आदि), 58 मामले राष्ट्र की एकता और अखंडता को खतरा पहुंचाने (धारा 153 बी आईपीसी) और 1,226 मामले यूएपीए के तहत दर्ज किए गए हैं.

पुलिस ने इन केसों में 95 लोगों को राजद्रोह के और 1,900 लोगों को यूएपीए के आरोप में गिरफ्तार किया. और ऐसा तब हुआ जबकि इस दौरान देश में कहीं भी कोई भी वास्तविक आतंकवादी हमला हुआ ही नहीं!

आप खुद ही सोचें, देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने की घटना भला कब हुई? इससे क्या पता चलता है? क्या ये बात गले के नीचे उतारी जा सकती है कि देश में इतने सारे आतंकी होंगे?

क्या इस दौरान किसी ने भी सुप्रीम कोर्ट के केदारनाथ सिंह के फैसले के परिप्रेक्ष्य में ऐसा कहा था कि वह केंद्र सरकार को बलपूर्वक उखाड़कर फेंक देना चाहता है, जिससे वो देशद्रोही साबित हो?

कश्मीर और उत्तरपूर्व के आतंकी देश से अलग होने की बात बेशक करते थे, लेकिन मेरी जानकारी में उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा कि वे दिल्ली सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं.

सीपीआई (माओवादी) ने 2004 में अपने एक दस्तावेज़ में क्रांति की बात ज़रूर की थी लेकिन उसके बाद से वे भी समझ गए हैं कि क्रांति होने से रही और अब वे भी क्रांति की बात नहीं करते.

बहस के लिए एक क्षण ये मान भी लिया जाए कि देश में इतने सारे आतंकी मौजूद हैं और ऐसी हालत है कि प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के शोध छात्र और प्रोफेसर भी आतंकी माने जा रहे हैं, तो उसका सीधा मतलब होगा कि देश की सरकार, उसके निज़ाम और जिस प्रकार से ये देश अपना समय गुज़ार रहा है, उसमें कोई भारी गड़बड़ है.

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