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क्या हिंसा की संस्कृति अब भारत की पहचान बनती जा रही है

-द वायर,

इसमें अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि भारत में शासक दल भारतीय जनता पार्टी के द्वारा हिंसा भरी जा रही है. उससे भी ज़्यादा फिक्र की बात यह है कि हिंसा को लेकर एक तरह की बेहिस बेपरवाही लोगों में भरती जा रही है. हिंसा और हत्या की इस संस्कृति को समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है इसके पहले कि यह इस देश को पूरी तरह तबाह कर दे.

लखीमपुर खीरी में एक विरोध प्रदर्शन से लौट रहे किसानों को रौंदते हुए फर्राटे लेती गाड़ियों का दृश्य हतवाक् कर देने वाला था. लेकिन ऐसे लोग हमारे बीच हैं जो इसका औचित्य खोज रहे हैं.

पहले दिन कुछ घंटों तक तो कुछ टीवी चैनलों से यह साबित ही कर दिया था कि वास्तव में यह दुर्घटना थी और इसलिए घटी कि मंत्री की गाड़ियों पर किसानों ने हमला किया था, पत्थरबाजी की थी. थोड़ी ही देर में साबित हो गया कि यह झूठ था.

भारत सरकार के गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा की गाड़ियों ने सड़क पर खामोशी से चल रहे किसान प्रदर्शकारियों को इरादतन कुचला था, यह वीडियो से साफ़ हो गया. फिर भी हिंदी अखबारों और चैनलों ने हत्या को हत्या नहीं कहा. यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं. ऐसा पहले भी होता रहा है कि हत्या को हत्या नहीं, हादसा कहा जाए.

2002 में गुजरात में हुई नस्लकुशी के बारे में पूछे जाने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने, जो आज भारत के प्रधानमंत्री हैं, यही कहा कि उन्हें क्यों नहीं तकलीफ़ होगी, आखिर गाड़ी के नीचे पिल्ला आ जाए तो भी तकलीफ होती है. एक मुख्यमंत्री ने, जिसकी सदारत में यह जनसंहार हुआ, बेपरवाही से खुद को गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी सवारी और मार डाले गए लोगों को उस गाड़ी के पहिए के नीचे आ गए पिल्ले में बदल दिया.

गाड़ी और उसके नीचे आकर कुचल गए पिल्ले का यह रूपक याद आ गया जब पढ़ा कि मारे गए किसानों में एक की मां ने कहा कि लोग तो सड़क पर पड़े कुत्ते को भी बचाकर चलते हैं फिर क्या मेरा बेटा उससे भी गया-गुजरा था कि मंत्री की गाड़ियों ने उसे यूं रौंद दिया. क्या किसानों को सड़क पर देखकर गाड़ी के ड्राइवर को अचानक क्रोध आ गया? क्या उसे गुस्से के उबाल में उसने गाड़ी उन पर चढ़ा दी? आखिर क्यों हुआ होगा यह?

इस हिंसा का कारण है. इसके कुछ पहले ही गाड़ी के मालिक, भारत के गृह राज्यमंत्री ने एक खुली सभा में किसानों को धमकी दी थी. ‘सुधर जाओ वरना दो मिनट में ठीक कर देंगे’ और इलाके में रहना दूभर कर देंगे, मंत्री ने यह धमकी आंदोलनकारी किसानों को दी थी.

मंत्री ने अपने इतिहास की याद भी सबको दिलाई थी जिसका अर्थ यह था कि वह एक गुंडे का इतिहास है. इस खुली धमकी के बाद भी उस इलाके में किसान विरोध प्रदर्शन करते रहे और फिर यह हिंसा की गई. तो यह किसानों को ‘ठीक कर देने’ का ही एक नमूना था.

जिस वक्त केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा का किसानों को धमकी देता वीडियो सामने आया उसी के आस-पास एक और वीडियो प्रसारित हुआ. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर अपने दल के कार्यकर्ताओं को लट्ठ उठाकर किसानों को ‘ठीक कर देने’ का आह्वान करते हुए दिखलाई पड़ रहे हैं. फिर जो होगा, वह देखा जाएगा. अगर वे जेल गए तो कुछ दिन में निकल आएंगे और बड़े नेता बन जाएंगे, यह भरोसा भी दिलाया.

मुख्यमंत्री खुलेआम हिंसा के लिए अपने लोगों को उकसा रहा है, यह देखकर भारत में बाहर के लोग शायद हैरान रह जाएं लेकिन भारत में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को ऐसा करते देखने की अब सबको आदत पड़ गई है. खट्टर के उस वीडियो में उनकी मुद्रा भी गली के दबंग दादा जैसी ही है.

हिंसा का खुलेआम प्रचार और उकसावा कोई अचानक इसी वक्त नहीं किया जा रहा है. किसान आंदोलन शुरू होने के समय ही उसे हिंसा के बल पर दबाने की कोशिश की गई थी. दिल्ली को मार्च करते किसानों पर हरियाणा सरकार की पुलिस ने जिस तरह लाठियां चलाईं, उनके रास्ते को कोड़ दिया, खोद डाला और रुकावटें खड़ी कीं, वह भूलना मुश्किल है. फिर भी किसान यह सब कुछ झेलते हुए दिल्ली की सरहदों तक पहुंच गए और जब दिल्ली पुलिस ने रुकावट खड़ी की, तो वहीं डेरा डाल दिया.

सबने किसानों के धैर्य को देखा,उनके शांतिपूर्ण, अहिंसक आंदोलन ने बहुतों को चकित भी किया. लेकिन सरकारी दल और उनके समर्थक अखबार और टीवी चैनल तब क्या कर रहे थे? वे किसानों को खालिस्तानी, माओवादी बतला रहे थे. वे गैर किसान जनता में और भारत के दूसरे राज्यों में मुख्य रूप से पंजाब से आए इन आंदोलनकारियों के खिलाफ संदेह और घृणा का प्रचार कर रहे थे.

किसी के खिलाफ शक और नफ़रत अगर समाज में भर दी जाए तो उस पर हिंसा आसान हो जाती है क्योंकि उसका एक कारण पहले से तैयार कर लिया गया होता है.

इस घृणा प्रचार के बाद दिल्ली के सिंघू वाले किसान धरने पर और टिकरी पर भी गुंडों के गिरोहों ने हमले किए. धरनास्थल पर आगजनी की गई, तोड़-फोड़ की गई. इन हमलों को यह कहकर उचित ठहराने का प्रयास किया गया कि ये स्थानीय लोगों लोगों के रोष की अभिव्यक्ति हैं क्योंकि किसानों के धरने से उन्हें बहुत परेशानी हो रही थी.

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