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महंगाई "वास्तविक" है और इसका समाधान भी वास्तविक होना चाहिए

-न्यूजक्लिक,

महंगाई और इससे निपटने के तरीके लोगों को असल में प्रभावित करते हैं। यह महज़ कोई आंकड़ा नहीं है, जिसे हम विशेषज्ञों की बातचीत में टीवी पर देखते हैं। बल्कि यह तय करता है कि कैसे असली संसाधन हमारे समाज में वितरित हो रहे हैं। कैसे उन तक अलग-अलग वर्ग समूहों की पहुंच सुनिश्चित हो रही है। सामान्य आदमी की इसमें कोई भागेदारी नहीं होती कि सरकार कैसे मुद्रास्फीति (महंगाई) पर नियंत्रण करे। जबकि महंगाई तय करती है कि इन लोगों द्वारा क्या खाया जाएगा, कितना कमाया जाएगा, उनके बच्चे कौनसे स्कूल में जाएंगे, वे कौन सा स्वास्थ्य उपचार वहन कर पाएंगे और जब वे बुजुर्ग होंगे, तो उनकी बचत क्या होंगी। बल्कि इसके उलट, बड़े हितों वाले ताकतवर लोगों के प्रभाव में जो खराब़ फ़ैसले लिए जाते हैं, उसकी कीमत यह लोग अदा करते हैं।

पहले से ही महंगाई की चपेट में तड़प रही दुनिया में रूस-यूक्रेन युद्ध ने एक और नय आयाम जोड़ दिया है। वाल स्ट्रीट के अर्थशास्त्री और वित्तीय मीडिया विशेषज्ञ फौरन अंदाजा लगाने में लग गए कि अमेरिकी फेडरल रिज़र्व (फेड) ब्याज़ दरों को बढ़ाने की अपनी योजना में शायद ही बदलाव करे, जो मार्च से लागू होनी हैं, हालांकि इस पर अलग-अलग विचार हैं कि ब्याज़ बढ़ाने की गति और स्तर क्या होगा। कुछ लोग सोच रहे हैं कि इस तरह की भूराजनीतिक स्थितियों/तेल की बढ़ी हुई कीमतों से लगे झटके के दौर में सबसे प्रभावी मुद्रा नीतियां क्या होंगी, वहीं कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि चाहे संकट हो या ना हो, जैसा अमेरिकी सरकार कर रही है, वही महंगाई से निपटने का सबसे बेहतर तरीका है। 

शायद रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया द्वारा 10 फरवरी को अपनी बैठक में ब्याज़ दरों में कोई बदलाव ना किया जाना, इस अवधारणा को थोड़ा-बहुत बदल सके। आरबीआई ने अनाज और अन्य बाज़ार अनुमानों से उलट फ़ैसला लिया, जबकि आरबीआई जानता था कि दुनिया का सबसे ताकतवर केंद्रीय बैंक (फेड) तेजी से ब्याज़ दर बढ़ाने वाला है (जैसा 2015-18 के दौर के बाद नहीं देखा गया है), साथ ही तेल की कीमतें पिछले सात साल में सबसे ज़्यादा उच्च स्तर पर थीं। आरबीआई ने महंगाई का अनुमान लगाने के लिए किसी एक वक़्त पर तेल की ऊंची कीमतों को गणना में लेने के खिलाफ़ मत दिया था (तब यूक्रेन पर रूस ने हमला नहीं किया था)। कई लोगों ने यहां ध्यान नहीं दिया कि महीने से महीने के अनुमानों में, दरअसल जनवरी में खुदरा महंगाई कम हुई थी। 

अगर आरबीआई अगली बैठक में अपनी मौजूदा स्थिति को बरकरार रखने में कामयाब रहती है और यूक्रेन की स्थिति व अमेरिका के फेड से प्रभावित नहीं होता, तो दो अहम घटनाक्रम यहां प्रदर्शित होते हैं। पहला: आरबीआई ने कीमतों को तय करने में अब तक के सबसे प्रभावी हथियार ब्याज़ दर को अलग-थलग कर दिया है और ऐसा करना सही भी है। इसका मतलब हुआ कि तरलता और वित्तीय स्थिरता को बरकरार रखने के लिए इस्तेमाल होने वाले अपारंपरिक तरीके यहां ठहरने वाले हैं, यह वही तरीके हैं जिन्हें हाल में क्रूड तेल ब्याज़ दर वाले उपकरण की जगह इस्तेमाल किया जा रहा है। 

दूसरा, शायद सबसे ज़्यादा अहम भी, यह बताता है कि आरबीआई ने घरेलू अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक लक्ष्यों के लिए सरकार से समन्वय बनाने को प्राथमिकता दी है, ना कि आरबीआई अंधे तरीके से दुनिया के ताकतवर केंद्रीय बैंक की हठीली रूढ़ीवादी मुद्रा नीतियों का पालन कर रहा है।  

बल्कि यह समझ कि मुद्रा नीतियां सिर्फ़ आंकड़ा नहीं होतीं, बल्कि असली लोगों के लिए फ़ैसले लेती हैं, इसमें भी आरबीआई ज़्यादातर केंद्रीय बैंकों से आगे है। लेकिन सिर्फ़ आरबीआई अकेला ऐसा नहीं कर सकता। 

राजकोषीय नीतियां, महंगाई और बाज़ार की ताकत

कुछ अलग मत रखने वाले अर्थशास्त्री लगातार कह रहे हैं कि ज़मीन पर विकास दर को तेज करने या ज़्यादा गर्म हो चुकी अर्थव्यवस्था को शांत करने के लिए ब्याज़ दर के प्रबंधन पर अंध तरीके से विश्वास सही नहीं है, जो कई बार अप्रभावी साबित हुआ है। जैसे अमेरिका और दुनिया में "वोलकर शॉक" के बाद का दशक। 

डेनिसन यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर फादेल कबूब इस तथ्य को बार-बार उबारने में केंद्रीय भूमिका निभाते रहे हैं कि तेल कीमतों के झटके, भूराजनीतिक संकट, अंतरराष्ट्रीय वस्तु उत्पादक गिरोह और आपूर्ति श्रृंखला में आने वाली बाधा या खाद्यान्न की कम आपूर्ति जैसे महंगाई बढ़ाने वाले सामान्य कारकों पर केंद्रीय बैंक के उपकरणों का बहुत प्रभाव नहीं होता। 

आज दुनिया के सामने जो चुनौती है, कबूब उसके लिए उदाहरण देते हुए कहते हैं कि अमेरिका में 1970 के दशक में आई अर्थव्यस्था की रुकावट का सरकार के खर्च या श्रमिक यूनियनों से कोई लेना-देना नहीं था। यह तेल संकट से पैदा हुई थी, जो मध्यपूर्व में विवाद के चलते उपजा था, तब "ओपेक देशों ने पश्चिमी दुनिया को इज़रायल का साथ देने के लिए सबक सिखाना निश्चित किया और तेल का उत्पादन कम कर दिया।" यह स्थिति 1980 में तब खत्म हुई, जब राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने कूटनीतिक तरीके से ओपेक देशों के साथ विवाद का हल कर लिया और प्राकृतिक गैस उद्योग को तेल के विकल्प के रूप में विनियंत्रित किया। यह संकट संघीय बैंक (वोकर ने तब ब्याज़ दर को 20 फ़ीसदी तक बढ़ा दिया था)।

इसलिए यह सरकार और राजकोषीय नीतियों की जिम्मेदारी है कि वे महंगाई से निपटने के लिए जहां सबसे ज़्यादा जरूरी है, वहां प्रत्यक्ष खर्च बढ़ाएं और केंद्रीय भूमिका अदा करें। 

एक लोकतंत्र में यह तरीका हम आम नागरिकों को मुद्रास्फीति प्रबंधन के फ़ैसलों में एक सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर भी प्रदान करती है। 

उदाहरण के लिए क्रूड तेल की कीमतें, जो पहले ही बेहद उच्च स्तर पर चल रही हैं। यह यूक्रेन विवाद के चलते और भी ज़्यादा खराब हो सकती हैं। इसे साधारण तरीके से "मांग की तुलना में आपूर्ति में कमी" से समझा जा सकता है। लेकिन कीमतों में यह उछाल वाकई में कमी के चलते आ रही है या कुछ और चीज भी यहां अपनी भूमिका निभा रही है?

कीमतों में छेड़खानी (कुछ बड़े खिलाड़ियों द्वारा आपूर्ति की कमी या मांग में अचानक आई तेजी के दौर में बेहद ऊंची कीमतें थोपने की क्षमता) और गिरोहबंदी, बाज़ार की शक्ति में असंतुलन के चलते उभरती है। यह महंगाई की सबसे अहम वज़हों में से एक है, लेकिन जिसके बारे में बहुत कम चर्चा होती है। 

अगर ताकतवर तेल गिरोह और कंपनियां इसके लिए कुख्यात हैं तो भारत में केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है, जो तेल बेचने वाली कंपनियों के ऊपर इन अंतिम कीमत को तय करती है, सरकार भी लगभग इन गिरोहों की तरह ही बर्ताव करती है। याद करिए कितनी ही बार अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड तेल की कीमतें बेहद कम हुई हैं, लेकिन फिर भी लोगों को पेट्रोल-डीजल के दाम में ज्यादा पैसा चुकाना पड़ा है।

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