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आर्थिक विकास तो महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत को बेरोजगारी, गरीबी, स्वास्थ्य, पर्यावरण पर भी ध्यान देना जरूरी है

-द प्रिंट,

बजट और आर्थिक सर्वेक्षण से व्यापक अर्थव्यवस्था के लिए सरकार की जो रणनीति उभरती है उसे इन शब्दों में सरलता से कहा जा सकता है—आर्थिक वृद्धि सभी समस्याओं का समाधान कर देगी. यह रणनीति दो दशक पहले कारगर होती थी जब व्यापक अर्थव्यवस्था के संकेतक आज के वित्तीय घाटे के लिहाज से हुआ करते थे, सरकारी कर्ज पर ब्याज भारी होता था, और बैंक समस्याओं से ग्रस्त होते थे. बाद के वर्षों में जब विश्व अर्थव्यवस्था को रामबाण के सहारे जिंदा रखा जा रहा था तब लगातार आर्थिक वृद्धि ने टैक्स से आमदनी बधाई, जीडीपी के मुक़ाबले घाटे कम किया, और ब्याज के बोझ को सहने की ताकत दी.

नयी सदी जब कदम रख रही थी उस समय की तुलना में आज एक फायदा यह है कि बुरे कर्ज और पूंजी की पर्याप्तता के मामले में बैंकों की स्थिति सुधार दी गई है. लेकिन उस समय यशवंत सिन्हा ने दरों में जो साहसिक कटौती की थी उससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने में मदद मिली थी. आज इससे उलटी स्थिति है. नीची ब्याज दरों में वृद्धि हो रही है. इसके अलावा, उस समय विश्व अर्थव्यवस्था को जो गति थी उसके मुक़ाबले वह सुस्त पड़ रही है. इसलिए, सरकार अगर यह सोचती है कि आर्थिक वृद्धि ही समाधान है, तो क्या बढ़ती दरों के कारण सुस्त पड़ती विश्व अर्थव्यवस्था में यह समाधान कारगर होगा, खासकर इस बात के भी मद्देनजर कि महामारी से पहले ही घरेलू आर्थिक वृद्धि की दर धीमी थी?

इसका जवाब यह है कि यह अगले दो-तीन साल तो कारगर हो सकता है. अगले वित्त वर्ष के लिए जिस तेज वृद्धि का अनुमान लगाया जा रहा है उसे इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए कि महामारी के आर्थिक प्रभावों से अभी आंशिक तौर पर ही उबरा जा सका है. अप्रैल-जून वाली तिमाही को इस बात का फायदा मिलेगा कि 2021-22 की पहली तिमाही के लिए आंकड़ों का आधार नीचा रखा गया था. वह तिमाही कोविद की दूसरी लहर से प्रभावित हुई थी. अर्थव्यवस्था अभी भी उत्पादन संबंधी अड़चनों से जूझ रही है, जो धीरे-धीरे ही दूर होंगी. इसलिए, आर्थिक वृद्धि का इस वर्ष के 9.2 प्रतिशत के ऊपर 2022-23 के लिए जो 7-8 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया है वह यथार्थपरक ही है.

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