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ज़मीन नहीं, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं यहूदी और फ़लस्तीनी!

-सत्यहिंदी,

एक ही सरज़मीन की दो नस्लें जो भाषा, धर्म, संस्कृति और दूसरी कई चीजों में एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं, ज़मीन के उस टुकड़े के लिए लड़ रही हैं जिस पर दोनों अपने अधिकार का दावा करती  हैं, जो दोनों के ही अस्तित्व के लिए ज़रूरी है, जो उनमें से किसी के लिए सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं है। लगभग 26 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैले इस इज़रायल-फ़लस्तीन के लिए जितना ख़ून बहा है, जितना संघर्ष हुआ है, उतना दुनिया में किसी जगह के लिए नहीं हुआ है। न ही दूसरे किसी संघर्ष ने विश्व राजनीति और पूरी मानवता को इस तरह प्रभावित किया है।

यहूदियों का दावा है कि रोमन साम्राज्य ने  सन् 70 में येरूशलम पर कब्जा कर 500 साल पुराने उनके मंदिर  को ध्वस्त कर उसमें आग लगा दी और सारे यहूदियों को वहाँ से खदेड़ दिया। यह शुद्ध रूप से राजनीतिक संघर्ष था, क्योंकि उस इलाक़े के लोगों ने रोमन साम्राज्य को टैक्स देना बंद कर दिया था और ख़ुद को आज़ाद घोषित कर दिया था। उस समय तो इसलाम आया भी नहीं था और ईसाई धर्म का कोई प्रभाव नहीं था। 

प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन ने ऑटोमन साम्राज्य को हरा दिया और उस इलाक़े पर कब्जा कर लिया, जहाँ आज इज़रायल, फ़लस्तीन और जोर्डन हैं। उस समय मौजूद देशों के संगठन (संयुक्त राष्ट्र की तरह) लीग ऑफ़ नेशन्स ने ब्रिटेन से कहा कि वह उस इलाक़े का प्रसाशन तब तक देखे जब तक वहां एक राष्ट्र नहीं बन जाता जो अपना काम खुद देख सके। इसे ही मैन्डेट फॉर पैलेस्टाइन या ब्रिटिश मैन्डेट कहा गया। यह दिसंबर 1922 से 15 मई 1948 तक रहा। 

बालफ़ोर डेक्लेरेशन
लेकिन इसके पहले प्रथम विश्व युद्ध ख़त्म होते समय ब्रिटेन के विदेश मंत्री जेम्स आर्थर बालफ़ोर ने 1918 में ब्रिटिश यहूदी समुदाय के प्रमुख लॉर्ड रोथ्सचाइल्ड को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें पहली बार यहूदियों के लिए एक अलग देश बनाने की बात कही गई थी। 

लीग ऑफ़ नेशन्स के मैंडेट से यह साफ़ हो गया कि जब तक यहूदियों के लिए अलग देश बनता है, तब तक उसका प्रशासन ब्रिटेन देखता रहेगा।

संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट
लेकिन यहूदियों का मानना है कि यहूदी धर्म के संस्थापक पैगंबर मूसा ने इसी धरती पर यहूदियों का राज होने की बात कही थी। इस धरती पर अपना खोया अधिकार वापस पाने के लिए यहूदियों ने ठोस और निर्णायक अभियान की शुरुआत 1947 में की। 

द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद 15 मई, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक समिति का गठन किया, जिससे यह कहा गया कि वह फ़लस्तीन की ज़मीन और यहूदियों के लिए अलग देश के सवाल पर रिपोर्ट दे। दिलचस्प बात यह है कि इस समिति में भारत भी शामिल था।

इस समिति ने 1 सितंबर 1947 को जो रिपोर्ट सौंपी, उसमें यह कहा गया कि फ़लस्तीन की मौजूदा सीमा के अंदर अरबों का एक देश बने, यहूदियों का एक अलग स्वतंत्र देश बने और येरूशलम शहर को संयुक्त राष्ट्र के नियंत्रण में रखा जाए।

इसके मुताबिक़, लगभग 15 हज़ार वर्ग किलोमीटर में अरबों का देश फ़लस्तीन होगा, जो अरब -मुसलिम बहुसंख्यक होगा, लेकिन  वहाँ रह रहे यहूदी अल्पसंख्यक भी वहाँ समान हक़ों के साथ बने रहेंगे। 
लगभग 11 हज़ार किलोमीटर में यहूदियों का स्वतंत्र देश होगा, जिसमें वहाँ रह रहे अल्पसंख्यक मुसलमान अरब समान अधिकारों के साथ बने रह सकेंगे। 
येरूशलम और बेथलेहम को संयुक्त राष्ट्र के तहत रखा जाएगा।

येरूशलम-बेथलेहम
येरूशलम यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के लिए समान रूप से पवित्र है, क्योंकि यहूदियों के पहले मंदिर के अवशेष और टेंपल माउंट हैं तो मक्का-मदीना के बाद मुसलमानों का तीसरा सबसे पवित्र धर्म स्थान अल अक्सा मसजिद भी येरूशलम में है। बेथलेहम ईसा मसीह का जन्म स्थान है और वह स्थान भी जहाँ उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया था और दफ़नाया गया था। इन जगहों पर चर्च ऑफ़ नेटिवटी और चर्च ऑफ होली सेपल्चर बने हुए हैं।

संयुक्त राष्ट्र महासभा की इस रिपोर्ट को 29 नवंबर, 1947 को मतदान के  लिए रखा गया, इसके पक्ष में 33 देशों ने वोट दिया तो इसके ख़िलाफ़ 13 देशों ने मतदान किया जबकि 10 देश मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे।

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