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सैन्य कार्रवाई के जरिए आतंकवादियों को मार गिराना ही सिर्फ कश्मीर नीति नहीं हो सकती

-द प्रिंट,

ले. जन. एचएस पनाग (रि.) ने अपनी नई किताब ‘द इंडियन आर्मी: रेमिनिसेंसेज़, रिफॉर्म्स एंड रोमांस ‘ में लिखा है, ‘दो सौ आतंकवादियों का सफाया कर दिया गया था, गर्मियों की घुसपैठ विरोधी मुद्रा स्थापित हो गई थी’. ये किताब कश्मीर में उनके कार्यकाल के बारे में भी बात करती है.

लेकिन ले. जन. पनाग कोई हाल ही में रिटायर हुए ऑफिसर नहीं हैं, वो 2007 में नॉर्दर्न आर्मी कमांडर थे.

इससे पता चलता है कि जम्मू कश्मीर में मारे गए आतंकवादियों के सालाना अनुपात को लेकर, सुरक्षा बलों और सरकार दोनों का जश्न मनाना, कोई नई घटना नहीं है बल्कि ऐसा बरसों से चलता आ रहा है. सत्ता किसी के भी हाथ में हो, कहानी हर साल वही होती है.

ये समझना चाहिए कि आतंकवाद का मुकाबला सेना का मुख्य काम नहीं है और आतंकवाद विरोधी कार्रवाईयों में भारी तैनातियां कुछ सालों में दरअसल रणनीति और प्लानिंग की एक कश्मीर-केंद्रित या पाकिस्तान-केंद्रित सोच को जन्म देती है जो नुकसानदायक है.

वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर जो हो रहा है, वो दरअस्ल एक तरह से वरदान ही है क्योंकि एक देश के तौर पर हम अचानक वास्तविक चुनौती को लेकर जाग उठे हैं और वो है- चीन.

इस चुनौती से निपटने के लिए हमें अपने सोचने की प्रक्रिया में कुछ दूरगामी बदलाव करने होंगे और हर साल कुछ सौ आतंकवादियों को मार गिराने पर अपनी पीठ थपथपाना बंद करना होगा.

हत्याओं पर चलने वाली मानसिकता नहीं होनी चाहिए
ये बहुत ज़रूरी होगा कि हमारी मानसिकता लगातार हत्याओं के हिसाब से काम न करे. हर साल हो रही हत्याओं के बावजूद आतंकवाद का फलना-फूलना, इस बात का संकेत है कि ये तरीका काम नहीं कर रहा है. लेकिन फिर भी आधिकारिक घोषणाओं में इसे नियमित रूप से एक सहायक तत्व के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

नरेंद्र मोदी सरकार के अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले के एक साल पूरे होने से पहले ही इस कदम को कामयाब करार देने के लिए केंद्र और जम्मू-कश्मीर सुरक्षा बल 5 अगस्त 2019 के बाद मारे गए आतंकवादियों की संख्या का हवाला दे रहे थे.

इसमें कोई शक नहीं कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों का काम उन आतंकवादियों का सफाया करना है जिन्होंने पाकिस्तान की ओर से भारत के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ा हुआ है. लेकिन सुरक्षा बलों और सरकार के इस एकनिष्ठ फोकस का असर उलटा पड़ रहा है.

सुरक्षा बल सामरिक कारणों से वहां हैं और उनसे कश्मीर समाधान की अपेक्षा करना गलत होगा.

5 अगस्त 2019 के बाद से हत्याओं की संख्या में तेज़ी से इज़ाफा बहुत परेशान करने वाला है. खासकर इस वजह से कि मारे जाने वाले अधिकतर लोग स्थानीय युवक थे जो हाल ही में आतंकी संगठनों में शामिल हुए थे.

इत्तेफाक से, पहले के विपरीत ये नौजवान न तो प्रशिक्षित हैं और न ही भारी असलहे से लैस हैं. इसलिए कोई ताज्जुब नहीं कि हालिया मुठभेड़ों से बहुत सारे पिस्टल्स बरामद किए गए.

मैंने पहले भी सुरक्षा बलों की इस बिल्कुल नई नीति के विरोध में तर्क दिए थे जिसमें मारे गए आतंकियों की शिनाख़्त नहीं बताई जाती.

कश्मीर में पहले ही शोपियां में जुलाई महीने में एक तथाकथित मुठभेड़ में तीन ‘उग्रवादियों’ के मारे जाने पर एक तूफान खड़ा हो रहा है. कुछ रिपोर्ट्स इस ओर इशारा करती हैं कि वो तीन लोग शायद जम्मू के राजौरी के तीन बेगुनाह मज़दूर थे.

ईमानदारी से की हुई जांच ही ‘शोपियां मुठभेड़’ की सच्चाई से परदा उठा सकती है लेकिन सुरक्षा बलों के बीच जांच कराने की कोई इच्छा नहीं है, यहां तक कि पुलिस भी बहुत सतर्क है और मुठभेड़ के बारे में विस्तृत जानकारी देने से बच रही है.

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