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कोसी तटबंध तोड़ने का सच

-वाटर पोर्टल,

यमुना प्रसाद मंडल, सांसद ने डलवा में तटबंध टूटने की समीक्षा करते हुये 4 सितम्बर 1963 को कहा था कि, डलवा के निकट जो खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो गई थी, उस ओर हमने अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट किया लेकिन मैं यह कहते हुए लज्जित हूं कि उस दुरावस्था की ओर उस समय कदम नहीं उठाया गया। तब नेताओं को अपनी असफलता पर शर्म आया करती थी। अरसा हुआ यह रस्म हमारे बीच से उठ गई। डलवा की दुर्घटना के ठीक चार साल बाद नदी ने कोसी के पश्चिम तटबंध पर एक बार फिर कुनौली के पास हमला किया मगर तटबंध टूटने से बच गया। लोकसभा में (2 जुलाई, 1967) बार-बार इस तरह की होने वाली घटनाओं पर बहस चली। जवाब में तत्कालीन केंद्रीय सिंचाई मंत्री डा. के. एल. राव ने कहा कि नदी के बारे में कोई भी यह नहीं कह सकता कि दरार पड़ेगी या नहीं।

कोसी के बारे में यह बात खासकर कही जा सकती है, क्‍योंकि कोसी हमेशा पश्चिम की ओर खिसकती रही है। कोसी की इसी विशिष्टता के कारण हमें कोसी परियोजना को हाथ में लेना पड़ा है। जिसकी वजह से नदी पर लगाम कसी जा सकी और यह पिछले दस वर्षों से एक जगह बनी हुई है वरना यह दरभंगा जिले में झंझारपुर तक पहुंच गई होती! डलवा और कुनौली दोनों कोसी पश्चिम तटबंध के पश्चिम में है। जाहिर है, उस समय और उसके बाद दरभंगा में जमालपुर की दरार (1968) तक कोसी के पश्चिम की ओर जाने के रूझान को उसी तरह प्रचारित किया गया था जैसे आज उसके पूरब की ओर जाने का ढिंढोरा पीटा जाता है। कोसी के संबंध में डा. राव ने डंके की चोट इशारा किया था कि तटबंध में और खास कर कोसी के तटबंध में दरार पड़ेगी या नहीं यह कोई नहीं कह सकता। 1967 में डा. राव यह भूल चुके थे कि डलवा में कोसी तटबंध में दरार पड़ चुकी थी जबकि वहां उस वर्ष उनका कई बार आना जाना हुआ था। अब उनका 1954 का वह बयान देखिये जिसमें उन्होंने चीन में ह्वांग नदी के तटबंधों के बाद कहा था कि, क्योंकि पीली नदी (ह्वांग नदी) के तटबंध सदियों से सक्षम माने गये हैं, यद्यपि उनमें रख-रखाव और किनारों की निगरानी की समस्या के कारण समय-समय पर दरारें पड़ी हैं, कोसी तटबंध का निर्माण बराज के निर्माण से भी पहले तुरंत करना चाहिये कोसी प्रोजेक्ट में ठेकेदारी करना कोई व्यवसाय नहीं है यह महज एक आमदनी का जरिया हे। यह काम राजनीतिक संरक्षण के बिना शायद आसान नहीं होगा।

जनता शायद यह समझती है कि सारी योजनाएं उसके फायदे के लिए बनती है, कागजों और फाइलों में शायद लिखा भी यही जाता है मगर नियंता इन परियोजनाओं को एक दुधारू गाय की तरह देखता है जिसकी सारी देखभाल उसे दुहने का ध्यान में देख कर की जाती है। कौन सा काम कितना जरूरी है यह व्यवस्था तय करती है। उस काम से जनता और निहित स्वार्थों  को कितना फायदा होता है, यह इसी निर्णय में निहित होता है। इस निर्णय पर न कोई अंकुश है और न 'फरियाद या सुझाव की गुंजाइश। डलवा में तटबंध टूटने के पहले मरम्मत में 15 लाख रुपया खर्च हुआ और टूटने के बाद की कार्यवाही में 1.15 करोड़ रुपये भटनियां का अप्रोच बांध बनाने में खर्च हुआ था, तीन लाख सत्रह हजार रुपया और टूटने के बाद मरम्मत में लगा, दो करोड़ सत्तासी लाख रुपया। जोगिनियां में राज्य सरकार ढाई करोड़ रुपया मरम्मत (या फिजूलखर्ची) के मद में बचा लेना चाहती थी मगर उसे पांच करोड़ सत्रह लाख रुपया तटबंध टूटने के बाद खर्च करना पड़ गया और हर्जाने के तौर पर नेपाल को 19.18 लाख रुपया देना पड़ा। 1984 में नवहट्टा में तटबंधों के टूटने के ठीक एक दिन पहले ठेकेदारों को 51 लाख रुपये का भुगतान किया गया था जबकि टूटे तटबंध की मरम्मत में 8 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हुआ हेै।

इस वर्ष 8 अगस्त के दिन कुसहा में कोसी तटबंध टूट गया। इस दिन नदी का प्रवाह लगभग 1.50 लाख क्यूसेक था। टूटने के कारण नदी का अधिकांश प्रवाह नदी के बाहर होने लगा। जिसकी वजह से नेपाल के पश्चिमी कुसहा, श्रीपुर और लौकही पंचायतों की लगभग 35000 हजार अबादी इस पानी के मुहाने पर आ गयी और पूरी तरह तबाह हो गयी। इसके साथ ही सामने पड़े पूर्व पश्चिम राजमार्ग का भी वहां सफाया हो गया और नेपाल का आवागमन विच्छिन्न हो गया। उसके बाद जब दरार से निकले पानी ने भारत में प्रवेश किया, तो देखते-देखते सुपौल, मधेपुरा, अररिया इसकी बाढ़ की चपेट में आ गये। धीरे-धीरे यह पानी सहरसा, कटिहरा, पूर्णियां और खगडिया के हिस्से में फैल गया। फिलहाल जो स्थिति है, उसके अनुसार इन जिलों की लगभग 25 से 30 लाख आबादी बाढ़ की चपेट में है। जो गांव-कस्बे या शहर इस बाढ़ में फंसे हैं, वहां तक न तो बाहर से लोग पहुंच सकते हैं और न ही घिरे हुए लोग नाव के अभाव में वहां से बाहर आ सकते हैं। जब तक इन लोगों को सुरक्षित स्थान तक नहीं पहुंचाया जाता तब तक इन्हें रिलीफ भी नहीं दी जा सकती। इस तरह से लाखों लोग भूखे-प्यासे पानी से घिरे हैं और प्रशासन तथा आम आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े हैं। जीविका के एकमात्र साधन खेती का पूर्णरूप से विनाश हो चुका है और इस बात की संभावनाएं बहुत कम है कि रबी के मौसम में भी यहां खेती संभव हो पायेगी।

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