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कुंभ 2021: क्या नेताओं के लिए ग्रहों की चाल आम ज़िंदगियों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है

-द वायर,

कुंभ मेला हर बारह साल पर होता है. हरिद्वार का पिछला कुंभ 2010 में हुआ था. हरिद्वार के वर्तमान कुंभ मेले की वास्तविक तारीख 2022 थी, 2021 नहीं. फिर इसकी तारीख को पूरे एक साल घटाकर इसका आयोजन उस जानलेवा साल में क्यों हुआ, जब भारत में कोविड की दूसरी लहर की आशंका जताई जा रही थी, और जब महामारियों के अध्ययन हमें बताते हैं कि संक्रमणों की दूसरी लहर हमेशा पहली लहर से कहीं ज्यादा खतरनाक होती है. आइए मैं आपको इसकी वजह बताता हूं.

इसकी तारीख को पूरे एक साल पहले खिसकाकर इसका आयोजन 2021 में इसलिए किया गया क्योंकि रवि के मेष राशि (Aries) में प्रवेश और बृहस्पति के कुंभ राशि (Aquarious) में प्रवेश करने का ज्योतिषीय योग इस बार 2021 में था.

ऐसा हर 83 वर्षों में एक बार होता है. और यह ज्योतिषीय पंचांग को कैलेंडर के सालों के साथ समायोजित की जरूरत के कारण होता है. इस समायोजन का गणितीय रहस्य मेरी क्षमता से बाहर की चीज है और मेरी सलाह है कि अगर आप सिरदर्द मोल नहीं लेना चाहते, तो आप भी इसकी कोशिश मत कीजिए.

इसलिए, भारत सरकार और उत्तराखंड की सरकार ने कुंभ मेले को स्थगित नहीं किया, जो वे आसानी से कर सकते थे और इस तरह से कोविड-19 के हिसाब से एक सुपरस्प्रेडर इवेंट न कराकर लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी को खतरे में डालने से रोक सकते थे.

वे इसे इस साल सिर्फ इसलिए भी नहीं होने दे सकते थे क्योंकि यह हरिद्वार में आयोजित पिछले कुंभ मेले के बाद 11वां साल ही था, न कि 12वां साल. वे इस समय का इस्तेमाल ऐसी स्थितियों का निर्माण करने के लिए कर सकते थे, जिसमें संभवतः 2022 में कुंभ जैसे आयोजन का कोई औचित्य होता.

लेकिन उन्होंने जो किया वह बेहद खराब था. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के साथ राय-मशविरा करके उन्होंने तारीख को 2022 से पहले खिसकाकर 2021 करा दिया- जबकि उन्हें वैश्विक महामारी के खतरों के बारे में भली-भांति पता था.

ऐसा उन्होंने सिर्फ इसलिए किया क्योंकि ज्योतिषीय गणना ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा. क्योंकि, आपको पता है कि आस्था वह प्यारी चीज है जिसके नाम पर सुप्रीम कोर्ट एक आपराधिक कृत्य को एक निर्माण योजना से पुरस्कृत करता है. और यही वह चीज है जिसके नाम पर भारत सरकार और उत्तराखंड की सरकार के लिए बड़े पैमाने पर लोगों की जिंदगियों को खतरे में डालना अनिवार्य हो गया.

संक्रमण का इतिहास

कुंभ मेले के संक्रमण के प्रसार का स्थान होने की जानकारी ऐतिहासिक दस्तावेजों में मिलती है. भारत की सरकारों ने कभी-कभी कुंभ जैसे आयोजन से जुड़ी भीषण सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं का प्रबंधन सक्षम और संवेदनशील तरीके से करने में कामयाबी हासिल की है.

2013 का कुंभ मेला, जिसे इतिहास में इंसानों इस तरह का सबसे बड़ा जमावड़ा कहा गया, बगैर किसी बुरी खबर के संपन्न हो गया. इसका प्रमाण महामारी संबंधी मसलों के साथ-साथ आपदाओं और दुर्घनाओं की पूर्व तैयारी को लेकर हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ द्वारा कराए गए गहन अध्ययन से मिलता है. लेकिन तथ्य यह है कि उस समय कोई महामारी नहीं फैली हुई थी.

ऐसे में जबकि कोविड साल 2020 से ही फैल रहा था, यह अनुमान लगाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य में पीएचडी होने की जरूरत नहीं है कि कुंभ मेले के शाही स्नान जैसे मौके संक्रमण की दूसरी लहर के संभावित अधिकेंद्र हो सकते हैं. और इस बात की पूरी संभावना है है कि कुंभ के भीतर के हालातों के मद्देनजर इससे रोग की सुनामी आ सकती है. पिछले कुछ दिनों में ठीक यही हुआ है.

भारत में, और स्पष्ट कहें,  तो विश्व में हर कोई अब दिल्ली और देहरादून में बैठे हुए कुछ अज्ञानी लोगों के मूर्खतापूर्ण फैसलों के चलते खतरे में है. जो हुआ और जिसके कारण नरेंद्र मोदी को काफी देर से और अधूरे मन से कुंभ को ‘सांकेतिक’ रखने की सलाह देने की नौबत आ गई, उसमें हैरान होने जैसा कुछ नहीं है.

चिन्मय तुम्बे की हालिया किताब, द एज ऑफ पैनडेमिक्स: हाऊ दे शेप्ड इंडिया एंड द वर्ल्ड’ में महामारियों और विभिन्न कुंभ मेलों पर एक अलग से चर्चा शामिल है. डेविड अर्नाल्ड का 1986 क
लेख
, ‘हैजा एंड कोलोनियलिज्म इन ब्रिटिश इंडिया’ और कामा मैक्लीन की 2008 में आई किताब ‘पिलग्रिमेज एंड पावर: क
ुंभ मेला इन इलाहाबाद, 17
65-1954’
 भी उपयोगी है.

कुंभ मेला और रोग के इतिहास का सालों से अच्छी तरह दस्तावेजीकरण हुआ है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के हैजा पर एक मोनोग्राफ में कुंभ
पर एक खंड
 है. यहां तक कि 1895 के इंडियन मेडिकल गजट में नैचुरल हिस्ट्री ऑफ हरिद्वार हैजा आउटब्रेक्स पर एक लेख भी है.

काफी हाल में 2015 में क्लीनिकल माइक्रोबायो
लॉजी एंड इनफेक्शन
 में कुंभ मेला: आइडेंटिफाइंग रिस्क्स फॉर स्प्रेड ऑफ इंफेक्शियस डिजीजेज’ शीर्षक से एक पेपर प्रकाशित हुआ है.

तो क्या यह प्रधानमंत्री और उनके सलाहकर्ताओं का अज्ञान था, जो उन्हें इस खतरनाक रास्ते पर ले गया? या यह खतरों को जानते हुए भी जानबूझकर लिया गया एक सुविचारित राजनीतिक फैसला था?

सरकार को खतरों की थी जानकारी

सार्वजनिक स्वास्थ्य के खतरों की जानकारी उत्तराखंड सरकार को नहीं थी, ऐसा नहीं है. पिछले एक साल के दौरान उत्तराखंड सरकार कुंभ मेले के आयोजन और इसके आयोजन के तरीके को लेकर पसोपेश में थी.

जुलाई, 2020 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत (भाजपा) ने अखिल भारतीय अखाड़ा परि
द को यह आश्वासन
 दिया कि हरिद्वार में कुंभ मेला हमेशा की तरह आयोजित किया जाएगा- हालांकि वे भविष्य का अनुमान लगाने और इस तरह से ऐसा आश्वासन देने की स्थिति में नहीं थे.

पीटीआई की रिपोर्ट में उनके हवाले से कहा गया, ‘लेकिन परंपरागत रूप से इसका आयोजन जिस तरह से होता आया है, उसमें उस समय कोरोना वायरस की स्थिति को देखते हुए कुछ बदलाव किया जा सकता है.

सितंबर, 2020 में त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि लोगों की उपस्थिति प्रतिबंध के अधीन रहेगी. दिसंबर, 2020 में अखाड़ा परिषद के संतों ने कुंभ मेले के आयोजन की तैयारी की स्थिति को लेकर अपना ‘असंतोष’ प्रकट किया.

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