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क्या देश को राज्यपालों की जरूरत है?

-सत्याग्रह,

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ एक बार फिर सुर्खियों में हैं. वजह वही पुरानी है. यानी ममता बनर्जी सरकार से उनकी नाराजगी. जगदीप धनखड़ का कहना है. ‘अगर संविधान की रक्षा नहीं हुई तो मुझे कार्रवाई करनी पड़ेगी. राज्यपाल के पद की लंबे समय से अनदेखी की जा रही है. मुझे संविधान के अनुच्छेद 154 पर विचार करने को बाध्य होना पड़ेगा.’ यह अनुच्छेद कहता है कि राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा.

उधर, तृणमूल कांग्रेस ने राज्यपाल पर अपने पद की छवि बिगाड़ने का आरोप लगाया है. पार्टी का कहना है कि जगदीप धनखड़ को इस पद के बजाय प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष पद संभालना चाहिए. इससे पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 26 सितंबर को राज्यपाल को पत्र लिखकर उनसे आग्रह किया था कि वे उसी दायरे में रहते हुए काम करें जो संविधान ने उनके लिए तय किया है.

राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच इस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों की यह पहली घटना नहीं है. इससे पहले राजस्थान में चली सियासी उथल-पुथल के दौरान वहां सत्ताधारी कांग्रेस ने राज्यपाल कलराज मिश्र पर कई बार पक्षपात के आरोप लगाए थे. उस समय पार्टी का कहना था कि राज्यपाल का आचरण देखकर लगता है कि जैसे वे एक पार्टी विशेष के हितों की पूर्ति कर रहे हैं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने उस समय सीधे-सीधे यह आरोप लगाया था कि कलराज मिश्र केंद्र के इशारे पर काम कर रहे हैं.

राज्यपालों पर इस तरह के आरोप अब इतने आम हो चुके हैं कि इनसे कोई चौंकता नहीं है. कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस पद की एक ऐसी संस्था के रूप में कल्पना की थी जो निष्पक्ष होगी और संवैधानिक संरक्षक की अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए देश के संघीय ढांचे को मजबूत करेगी. लेकिन आज स्थिति इससे मीलों दूर दिखती है. आज राज्यपाल अपने आचरण में केंद्रीय सत्ता के ऐसे एजेंट के तौर पर दिखते हैं जिनके लिए इस सत्ता को थामे पार्टी के हित ही सबसे ऊपर होते हैं.

इस लिहाज से ऐसा लगता है कि राज्यपालों के मामले में वही परंपरा चल रही है जो सदियों पहले शुरू हुई थी. असल में जब राज्यपाल जैसे पद की अवधारणा अस्तित्व में आई थी तो इसका मूल उद्देश्य यही था कि राज्यों पर केंद्रीय सत्ता की पकड़ मजबूत रहे. इतिहास पर नजर डालें तो जब भी कोई राजा किसी नए राज्य को जीतकर अपने राज्य में मिलाता था तो प्रशासन के सुभीते के लिए उसकी कमान अपने विश्वासपात्र किसी सगे-संबंधी या अन्य शख्स को थमा देता था. भारत में पहली बार राजनीतिक एकता स्थापित करने वाले मौर्य वंश के राजा बिंदुसार ने उज्जयिनी का राज्यपाल अपने पुत्र अशोक को बनाया था जो बाद में सम्राट बना. इस तरह की व्यवस्था मौर्य वंश के बाद आए शुंग वंश से लेकर गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट और मुगल वंश तक रही. अकबर के समय कुल प्रांतों की संख्या 15 थी जिनमें से एक गुजरात भी था और एक समय वहां के सूबेदार यानी राज्यपाल टोडरमल भी थे.

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