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कोरोना की मारी दुनिया में रोजगार और उत्पादन का भविष्य

न्यूजलॉन्ड्री, 

आज हमारी दुनिया में सब कुछ बहुत तेजी से हो रहा है. दो हफ्ते पहले मैंने लिखा था कि कोविड-19 के कारण हुए इस आर्थिक विनाश के फलस्वरूप अब कई ऐसी समस्याएं खुलकर सामने आ रही हैं जो अब तक हमारी नजरों से ओझल थीं. मैंने उन प्रवासी मजदूरों की दिल दहला देने वाली हालत के बारे में लिखा था. वे पहले रोजगार की खोज में अपने गांवों को छोड़कर शहर जाने को मजबूर हुए और फिर अब नौकरी छूटने के कारण घर वापस जा रहे हैं. उनमें से कई की तो भूख प्यास से रास्ते में मौत भी हो चुकी है.

तबसे प्रवासी मजदूरों का यह संकट हमारे जीवन का एक हिस्सा बन चुका है. मजदूर हमारे घरों में चर्चा का विषय बन चुके हैं और ऐसा मध्यम वर्गीय चेतना में पहली बार हुआ है. हमने उन्हें देखा, उनका दर्द महसूस किया है. ट्रेन की पटरियों पर थक कर सो रहे प्रवासी मजदूरों की मालगाड़ी से कुचले जाने की खबर सुनकर पूरा देश दुखी था. इस तरह के और भी कई मामले प्रकाश में आए हैं. हम सभी स्तब्ध हैं.

मैं यह अच्छी तरह से जानती हूं. लेकिन यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उनके दर्द पर किसी का ध्यान नहीं गया हो, ऐसा नहीं है. सरकार ने प्रवासियों को घर वापस लाने के लिए ट्रेनें शुरू की हैं, यह जानते हुए भी की इससे गांवों में कोरोना संक्रमण के फैल जाने का खतरा है. सरकार जानती है कि प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौटने के लिए अधीर हैं. ऐसा किया जाना जरूरी था.


मैं कह सकती हूं कि आज के हालात के अनुसार यह सभी प्रयास, जिसमें घर लौटते लोगों को मुफ्त भोजन देने का कदम भी शामिल है, अभी भी बहुत कम है. उन्हें गरिमा के साथ घर पहुंचाए जाने के अलावा रोजगार भी दिए जाने की आवश्यकता है ताकि वे आने वाले महीनों में अपना पेट भर सकें. हालांकि, अभी हमें सिर्फ लौटने वाले प्रवासियों की ही चिंता नहीं करनी है, बल्कि यह भी सोचना है कि न केवल भारत में, बल्कि दुनिया भर में रोजगार एवं उत्पादन के भविष्य पर इसका क्या असर होगा.

तो अब आगे क्या होने वाला है? मजदूर अपने घर वापस जा चुके हैं और हालात सुधरने के बाद वे वापस लौटेंगे ही, इसकी कोई गारंटी नहीं है. देश के कई शहरों से आने वाली ख़बरों से साफ हो चला है कि इस कार्यबल के बिना आवश्यक नागरिक सेवाएं प्रभावित हो रही हैं. उदाहरण के लिए, निर्माण क्षेत्र से आ रही खबरों से पता चला है कि बिल्डर परेशान हैं. लॉकडाउन में ढील भले ही दे दी गई हो लेकिन फैक्ट्रियों में काम करने के लिए मजदूर ही नहीं हैं.

पलायन करते मजदूर
डिस्पेंसबल एवं सस्ता श्रम समझे जाने वाले इन मजदूरों के काम की असली कीमत अब समझ आ रही है. ये मजदूर निहायत ही खराब परिस्थितियों में अपना जीवन व्यतीत करते हैं. ये फैक्ट्रियों में ही सोते व खाते हैं और आज पूरा विश्व इनकी समस्या को देख रहा है. औद्योगिक क्षेत्रों के लिए कोई सरकारी आवास या परिवहन या ऐसी कोई अन्य सुविधा नहीं है. कारखानों का काम है उत्पादन करना और मजदूरों का काम है इन कठिन परिस्थितियों में जीवित रहना.

हम जानते हैं मजदूर इन फैक्ट्रियों में नित्य औद्योगिक रसायनों के संपर्क में आते हैं, जिसके फलस्वरूप वे जहरीली गैस के रिसाव या प्रदूषण की चपेट में आ जाते हैं. लेकिन क्या हमने कभी ठहरकर यह जानने की कोशिश की है कि ये अनौपचारिक, अवैध आवास क्यों बने हैं, इसलिए क्योंकि वहां रहने की कोई और व्यवस्था नहीं है. लेकिन श्रम को रोजगार चाहिए और उद्योगों को श्रम की आवश्यकता है. लेकिन अब श्रमिक गायब हो चुके हैं और कुछ लोग कहते हैं कि वे कभी नहीं लौटेंगे.

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