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'कमाई नहीं हो रही, लेकिन हम शहनाई बजाना तो नहीं छोड़ सकते'

-गांव कनेक्शन,

एक समय था जब बिना शहनाई के शादी नहीं होती थी, धीरे-धीरे शहनाई का चलन कम हुआ और पिछले कुछ तीन-चार महीनों में तो शहनाई बजाने वालों के पास कोई काम ही नहीं बचा। ऐसे ही एक शहनाई वादक पुराने लखनऊ के मोहम्मद खान भी हैं, जिनके पास अब कोई काम ही बचा है। मोहम्मद खान अपनी परेशानियों को बयां करते हुए कहते हैं, "हम लोग इस लॉकडाउन में कर्जदार हो गए हैं। पहले हम बड़ी आसानी से महीने में चार या पांच प्रोग्राम कर लेते थे, जिससे हमारा गुजर बसर अच्छे से चलता था। पन्द्रह-बीस हज़ार तो मिल ही जाते थे। सहालक में तो ये रक़म दोगुनी हो जाती थी। हम एक टीम के साथ काम करते है शहनाई, हारमोनियम, तबला और ढोलक, लेकिन अब इन सबके कमाई का रास्ता बंद हो चुका है।"

मोहम्मद खान पंद्रह साल की उम्र से शहनाई बजाने लगे थे और जिस शहनाई को वो बजाते हैं, वो करीब दो सौ साल पुरानी है। कई पीढ़ियों से उनके घर में चली आ रही है। शहनाई इतनी शुभ मानी गई है, हर शादी-विवाह, बच्चे के पैदा होने पर, तिलक में, हर शुभ काम शहनाई बजती है। देश में कई मशहूर शहनाई वादक हुए, इनमें बनारस का शहनाई घराना काफी मशहूर हुआ, भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान भी बनारस के घराने से ही थे। गुलाम मोहम्मद भी उसी बनारस घराने से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन शादी के बाद वो लखनऊ में ही बस गए। कभी रेडियो पर उनका कार्यक्रम आता था। वो कहते हैं, "शहनाई मेरे लिए सब कुछ है मेरी मोहब्बत है। हम भी बनारस घराने से ही हैं, उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहेब हमारे रिश्तेदार रहे और उनके जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं हो सकता।"

शास्त्रीय संगीत में शहनाई का जिक्र करते हुए कहते हैं, "शंकर जी का भी शहनाई और शास्त्रीय संगीत से संबंध रहा है, शंकर जी भी डमरू बजाते थे, नृत्य करते थे। बहुत ये राग जैसे रामग भैरव, नट भैरव, इसी तरह कल्याण, यमन कल्याण, सारे राग देवी-देवताओं पर ही बने हैं।" आज वो इसी बात से खुश हैं कि उनका शार्गिद काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाता है। वो कहते हैं, "मेरा नाती जो कि मेरा शागिर्द है, आज वो काशी विश्वनाथ में प्रोग्राम करता है, इसी बात से खुशी मिलती है, चलो किसी को तो काम मिला है।

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