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अजीब शिक्षा व्यवस्था: निवेश मनुष्य में नहीं, प्रतिभा में

-सत्यहिंदी,

ऐश्वर्या रेड्डी की आत्महत्या के बाद शुरू हुई बहस, कितनी ही यंत्रणादायक हो, क्षणिक होकर न रह जाए, यह आशा की जानी चाहिए। और यह कि वह सतही भर भी न हो। तेलंगाना से दिल्ली के प्रतिष्ठित लेडी श्रीराम कॉलेज में पढ़ने आई ऐश्वर्या को कॉलेज से दूर अपने घर में आत्महत्या ही उस विषम स्थिति से निकलने का रास्ता मालूम पड़ा जो शिक्षा ने उसके लिए पैदा कर दी थी। आत्महत्या के पहले ऐश्वर्या ने लिखा कि वह बिना शिक्षा के जीवित नहीं रह सकती लेकिन शिक्षा उसके परिवार के लिए, उसके लिए एक बोझ बन गई थी। 19 साल की उस किशोरी के इस बोझ को ढोते जाना और मुमकिन नहीं रह गया था। इसलिए उसने आत्महत्या का निर्णय किया।

19 साल की उम्र उतनी छोटी है कि निर्णय जैसे शब्द उसके लिए बहुत भारी मालूम पड़ते हैं। फिर भी उसे अपनी शिक्षा की असाधारणता का अहसास तो था ही। आख़िर उसकी पढ़ाई के लिए उसकी छोटी बहन को अपनी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी। माँ-पिता को अपना छोटा सा मकान गिरवी रख देना पड़ा था। वे उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए कोई भी क़ीमत चुकाने को तैयार थे। कोरोना महामारी के चलते उनकी आमदनी के ज़रिए और सिकुड़ गए थे। वे दोनों रोज़ कमाकर घर का ख़र्च निकालते थे। उनके लिए यह चिंता का विषय था कि वे बेटी के लिए लैपटॉप कहाँ से जुगाड़ करें और दूसरे, अब जब वह दिल्ली वापस जाएगी तो छात्रावास छूट जाने के बाद किराए के मकान में उसके रहने के लिए वे कहाँ से पैसे लाएँगे!

लैपटॉप की कमी और छात्रावास की फिक्र ने ऐश्वर्या की जान ले ली। कॉलेज के प्रशासन की असंवेदनशीलता को इसके लिए ज़िम्मेवार ठहराया जा रहा है। उनकी सफ़ाई है कि ऐश्वर्या ने उनसे अपनी असाधारण स्थिति के बारे में कभी नहीं बताया, वरना ज़रूर उसे राहत के उपाय किए जाते। छात्राओं का आरोप है कि कॉलेज की तरफ़ से कराए गए सर्वेक्षण में ऐश्वर्या ने अपनी परेशानी बतलाई थी लेकिन प्रशासन ने ध्यान न दिया। ऐश्वर्या ने अपनी कठिन स्थिति के बारे में सोनू सूद तक को लिखा था! विडंबना यह है कि उसे सरकारी छात्रवृत्ति थी लेकिन वह रक़म भी एक विचित्र कारण से उसे नहीं मिली थी। सरकार हर महीने यह रक़म नहीं देती है क्योंकि उसे आशंका बनी रहती है कि कहीं बीच में छात्रा ने पढ़ाई छोड़ दी तो सारा पैसा व्यर्थ चला जाएगा। इसलिए साल पूरा हो जाने का सबूत मिलने पर ही राशि जारी की जाती है! 

प्रतिभा हर रोग का इलाज नहीं है। प्रतिभा हो तो भी आप सरकार की निगाह में संभावित धोखेबाज़ ही हैं। निवेश मनुष्य में नहीं, प्रतिभा में किया जा रहा है जिसे हर क़दम पर ख़ुद को उपयोगी साबित करना है।
इसे सांस्थानिक हत्या कहने की नाटकीयता के प्रलोभन से यदि ख़ुद को रोक भी लें तो यह तो मानना पड़ेगा ही कि इस प्रकार की शिक्षा से ज़िंदा बचकर निकल जाना एक आश्चर्य ही है। ऐश्वर्या की प्रतिभा की पहचान कर ली गई थी और उसके लिए उसके परिवार को कोई भी बलिदान करना था। यह इतना स्वाभाविक मान लिया गया है कि किसी का ध्यान इस बात पर नहीं गया कि एक दूसरी लड़की, उसकी छोटी बहन की पढ़ाई तक उसके लिए छुड़वा दी गई थी। इसे सिर्फ़ तथ्य के रूप में नोट किया गया है मानो यह जितना स्वाभाविक उतना ही उचित भी है। पूरी चर्चा में इसपर आधा वाक्य भी ख़र्च नहीं किया गया कि यह भी असमानता और अन्याय का एक स्तर हो सकता है।

विश्वविद्यालयों की अमानवीय ज़िद!
किसी ने यह भी न पूछा कि चाहे कुछ हो जाए, यह पढ़ाई क्यों एक साँस में पूरी कर लेनी ही चाहिए थी? यह कि जब ऐश्वर्या जैसी करोड़ों लड़कियों के परिवार का जीवन ही अनिश्चय के भँवर में फँस गया था तो उस उद्वेलन के बीच क्योंकर शिक्षा का सामान्य व्यापार ऐसे जारी रहना चाहिए था कि मानो शिक्षा के लिए सिर्फ़ ऑनलाइन माध्यम के रूप में एक नए साधन का प्रयोग हो रहा है! क्यों विश्वविद्यालयों ने यह कहना मुनासिब न समझा कि शिक्षा सत्र का अबाधित रहना अनिवार्य नहीं है, कि इसे तब तक के लिए स्थगित किया जाता है जबतक महामारी से राहत नहीं मिलती है! यह ज़िद कि पहला साल या हर सत्र पूर्व निर्धारित नियम से ही ख़त्म होगा, एक अमानवीय ज़िद थी। कम से कम विश्वविद्यालय इससे मुक्त हो सकता था!

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