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बिहार के मक्का किसानों का दर्द- हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे भी किसानी करें, क्योंकि इसमें किसी तरह का फायदा नहीं है

-गांव कनेक्शन,

 "संसार में जो भी निर्माता है, अपनी वस्तुओं का मूल्य निर्धारण वो खुद करते हैं, तो आखिर किसानों की फसल का मूल्य निर्धारण करने वाले वे (सरकार) कौन होते हैं, इसका अधिकार मुझे क्यों नहीं मिला अभी तक।" न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रति अपना गुस्सा जाहिर करते हुए मधेपुरा ज़िला (बिहार) के रामपुर गांव के किसान जगदेव पंडित कहते हैं कि फसलों की सही कीमत न मिल पाने के कारण उनके गांव के कई किसान मेहनत करके उपजाए अपने आलू, मक्का सहित कई फसलों को सड़क पर फेंकने या घर में रख कर सड़ाने के लिए मजबूर हैं। हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या बिहार, इन सभी राज्यों के मक्का किसानों की स्थिति बताती है कि किसानों को लेकर सरकार की कथनी और करनी में काफी बड़ा अंतर है।

इन राज्यों में किसान या तो मक्के के न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए या फिर मक्के की सही कीमत के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर किसानों का गुस्सा कई बार तर्क संगत भी लगता है क्योंकि, मान लीजिए आपने एक साबुन की फैक्ट्री लगाई। उसके लिए रॉ मेटेरियल इकट्ठा किए, मशीनें, स्टाफ और एक अच्छी टीम बनाकर साबुन का उत्पादन भी हो गया। आपने साबुन की 100 ग्राम की टिकिया की कीमत 20 रुपए तय की क्योंकि मशीनें, जगह, रॉ मेटेरियल इत्यादी मिलाकर आपका खर्च 16 रुपए का आया। लेकिन साबुन के, बाज़ार में उतरने से पहले सरकार कहे कि आप साबुन को 17 रुपए से अधिक कीमत पर नहीं बेच सकते। आप कहेंगे, यह तो तानाशाही है, हमारे सामान की कीमत आखिर सरकार कैसे तय कर सकती है, लेकिन अब ज़रा सोच कर देखिए कि दशकों से सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर किसान के उपजाए फसल की कीमत तय करती है और किसान उस मूल्य या उससे कम पर अपनी फसल को बेचने के लिए मजबूर हैं। बिहार में कीमत न मिलने की वजह से किसान मक्के की कटाई ही नहीं कर रहे हैं। देश में रबी सीजन की बात करें तो इस समय के कुल उत्पादन का 80 फीसदी मक्का बिहार में पैदा होता है।

बिहार के 10 जिले समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और भागलपुर में देश के कुल मक्का उत्पादन का 30 से 40 प्रतिशत पैदावार होता है। यूं तो देश में मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपए प्रति कुंतल निर्धारित किया गया है, लेकिन बिहार में मक्के पर समर्थन मूल्य का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि बिहार सरकार न तो मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है और न ही गेंहू और चावल की तरह पैक्स के माध्यम से मक्के की खरीद करती है। यह भी पढ़ें- देश के किसान सही कीमत के लिए लड़ाई रहे रहे हैं और सरकार कम कीमत पर दूसरे देशों से मक्का आयात कर रही मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद जो वादे किए थे उनमें सबसे अधिक उम्मीद वाला वादा था 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा। साफ बात है कि किसान की आय न तो सरकारी दावों से दोगुनी होगी और न ही उसके फंदे से लटक जाने के बाद मिले मुआवज़े से। किसान की आय सिर्फ और सिर्फ उसके फसल की उसे सही कीमत मिलने के बाद ही दोगुनी हो सकती है। भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा मक्का उत्पादक देश है। चावल और गेंहू के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी फसल भी मक्का ही है।

इसी मक्के की स्थिति का जायजा लेने के लिए हम पहुंचे बिहार के मधेपुरा ज़िला के कुछ गांवों में। मधेपुरा और इसके आसपास के ज़िलों में मक्के की रिकॉर्ड खेती होती है। मिट्टी के अनुसार भी मक्का इस इलाके के लिए उपयुक्त फसल है। लेकिन इस बार मक्का किसान मायूस हैं। मायूसी और घाटा इतना है कि किसान अगले साल से मक्के की खेती छोड़ने पर भी विचार कर रहे हैं। किसान बताते हैं कि पिछली बार मक्के का अच्छा दाम मिला था, प्रति कुंतल उन्हें मक्के के 1900 से 2400 रुपए मिल गए थे, लेकिन इस बार आंधी और पानी के कारण फसल बर्बाद हो गई और जो फसल बची उसके दाम प्रति कुंतल 1000 रुपए से भी कम मिल रहे हैं। जो हाल बिहार के किसानों का है लगभग वही हाल मध्य प्रदेश के किसानों का भी है।

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