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हाथों से मैला उठाने की कुप्रथा यहाँ पीढ़ियों से चली आ रही, इस दंष से अभी तक आजाद नहीं हुई ये महिलाएं

-गांव कनेक्शन,

बांस की डलिया बगल में दबाकर नीले रंग की छींटदार साड़ी पहने शोभारानी रोजमर्रा की तरह आज भी सुबह 10 बजे मैला उठाने के लिए गाँव की गलियों में निकल पड़ी थीं। नाक पर साड़ी का पल्लू बांधकर ये मैला उठा रहीं थीं। शोभारानी अपने गांव में ही उन घरों से मैला (मानव मल) उठाने जा रही थीं, जिनके घरों में या तो शौचालय नहीं हैं या फिर वो आदतन दो ईंट रखकर शौच करते हैं और शौच के बाद उस पर राख आदि डाल देते हैं। शोभा उसे लोहे के एक खुरपे की सहायता से उठाकर अपनी डलिया में रखती हैं और मल वाली जगह पर झाड़ू लगाती हैं। उठाए गए मैले को सर पर उठाकर गांव के बाहर फेंककर आती हैं। ये उनका रोज का काम है।

शोभारानी की तरह उनके गांव में बाल्मीकी समुदाय की दूसरी महिलाएं भी ऐसा ही काम रोज करती हैं। सरल शब्दों में इसे आप हाथ से मैला उठाने की कुप्रथा कह सकते हैं। देशभर में स्वच्छ भारत मिशन योजना काफी समय से चल रही है। शौचालय बनाने और स्वच्छता का पाठ पढ़ाने में करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं और खर्च किये भी जा रहे हैं, लेकिन देश के कई हिस्सों में हाथ से मैला उठाने का काम आज भी जारी है। आम बजट 2020-21 में 'स्वच्छ भारत अभियान' के लिए 12,300 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है।

जालौन जिले के संदी गाँव में हाथ से मैला उठाती ममता बाल्मीकी. फोटो : नीतू सिंह सरकार की स्वच्छ भारत मिशन- ग्रामीण वेबसाइट के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में दो अक्टूबर 2014 से अब तक 10, 72, 59, 057 शौचालय बन चुके हैं। शौचालय निर्माण में हर साल औसतन 10,000 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 250 किलोमीटर दूर जालौन जिले की शोभारानी को अपनी उम्र ठीक से नहीं पता, देखने पर वो 45-50 वर्ष की लगती हैं। रोज सुबह ये अपने गाँव के 10-12 घरों में हाथ से मैला उठाने का काम 30-35 साल से कर रही हैं। ये काम पहले से कम तो हुआ है पर पूरी तरह से अभी समाप्त नहीं हुआ है।

इनके पति ज्यादा काम कर नहीं पाते, एक बेटा दिव्यांग हैं। बच्चों का पेट भरने के लिए इतने वर्षों से मैला उठाना इनकी मजबूरी है। ये समुदाय भूमिहीन होता है, इनके पास जीवकोपार्जन का कोई साधन नहीं है। पीढ़ियों से मैला उठाने का काम ये लोग करते आ रहे हैं। खबर पढ़ते वक्त आपके मन में कई सवाल उठ रहे हैं होंगे कि आख़िर स्वच्छ भारत में शोभारानी हाथ से मैला क्यों उठा रही हैं? क्या गाँव में अभी पूरी तरह शौचालय नहीं बने या फिर कोई और वजह? ये सवाल भी जेहन में आ सकता है कि शायद मैला उठाने के इन्हें ज्यादा पैसे मिलते होंगे? लेकिन शोभारानी या उन जैसी उनके समाज की तमाम महिलाओं को इस काम के बदले कोई पैसे नहीं मिलते।

मैला उठाने के बदले सिर्फ दिन की कुछ रोटियां, नमक या अचार या फिर कई बार थोड़ी बहुत सब्जी मिल जाती है। हाथ से मैला उठाना इनकी मजबूरी है क्योंकि इन्हें परिवार का पेट पालना है। शोभारानी के गांव में इनकी जाति के कुल पांच घर हैं। इन सबने एक दो साल से खाना लेना बंद कर दिया है जिसके बदले इन्हें साल में 8-10 पसेरी (पसेरी मतलब ढाई किलो) गेंहूं मिलते हैं। अपने पोते-पोतियों की तरफ इशारा करते हुए शोभारानी कहती हैं, "बच्चों का पेट भरने के लिए बेबस में ये गंदा काम करना पड़ता है। किसे अच्छा लगता है कि वो हाथ से दूसरों का मैला (शौच) उठाकर फेंके? नहीं करेंगे तो ये बच्चे खाएंगे क्या? मुंह में कपड़ा बाँध लेते हैं, कई बार उल्टी हो जाती है, पूरी जिंदगी गुजर गयी पर ये काम करना बंद नहीं हुआ।"

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