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मनु का क़ानून और हिंदू राष्ट्र के नागरिकों के लिए उसके मायने

-द वायर,

हाल ही में चेन्नई में भाजपा ने अपनी नई नेता खुशबू के नेतृत्व में तमिलनाडु के सांसद थिरुमावलवन द्वारा मनुस्मृति के बारे में की गई टिप्पणियों के विरोध में प्रदर्शन किया गया था. यह शायद भाजपा द्वारा मनुस्मृति के समर्थन में पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था. ऐसा लगता है कि संघ परिवार अब खुलकर इस पुरातन ग्रंथ के पक्ष मे हमलावर रुख अपनाकर सामने आना वाला है.

दरअसल, 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर के तमाम संवैधानिक और जनतांत्रिक अधिकारों की समाप्ति की पहली सालगिरह को इस नए तेवर का संकेत मिल चुका था.

कश्मीर की जनता पर इस बड़े हमले का इस्तेमाल भारत के अकेले मुस्लिम बहुल राज्य की इस विशेषता को समाप्त करने के लिए किए जाने की पूर्ण संभावना है, इसलिए इस हमले को संघ परिवार के पुराने सपने- हिंदू राष्ट्र की स्थापना को साकार करने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम के रूप मे देखा जा सकता है.

5 अगस्त, 2020 को बाबरी मस्जिद के भग्नावशेष पर बनने वाले राम मंदिर के भूमि पूजन के अवसर पर आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने निम्नांकित श्लोक का पाठ किया–

एतद् देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः. स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ll139ll {2.20}

उस देश में जन्मे एक प्रथम जन्मे हुए (अर्थात ब्राह्मण) से
पृथ्वी पर तमाम मनुष्य अपने क्रमबद्ध कर्तव्य को सीखे

(अध्याय 1, पृष्ठ- 173, मनुस्मृति, डॉ. सुरेंद्र कुमार द्वारा संशोधित और संपादित, अर्श साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित और आरएसएस द्वारा विश्वसनीय संस्करण के रूप में प्रमाणित.)

2014 के राजनीतिक घटनाक्रम के बाद पैदा हुए उत्साह से भरपूर भागवत ने केवल देश मे हिंदू राष्ट्र की स्थापना का संकेत ही नहीं दिया बल्कि मनुस्मृति के इस श्लोक का पाठ करके उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि हिंदू राष्ट्र का आधार मनुस्मृति द्वारा वर्णित वर्णाश्रम धर्म होगा, जिसमें ब्राह्मण की श्रेष्ठता निहित है.

ऐसा करके उन्होंने 30 नवंबर 1949 को संघ द्वारा घोषित विचारों कि पुष्टि की. भारत के संविधान के पारित होने के 4 दिन बाद ही संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ में प्रकाशित एक लेख का कहना था कि

‘भारत के इस नए संविधान की सबसे बुरी बात यह है कि इसमे भारतीय कुछ भी नहीं है… प्राचीन भारत के अद्भुत संवैधानिक विकास के बारे मे इसमें कोई ज़िक्र ही नहीं है…आज तक मनुस्मृति मे दर्ज मनु के कानून दुनिया की प्रशंसा का कारण हैं और वे स्वयंस्फूर्त आज्ञाकारिता और अनुरूपता पैदा करते हैं… हमारे संवैधानिक विशेषज्ञों के लिए यह सब निरर्थक है.’

चुनावी मजबूरियों के चलते संघ परिवार ने अगले सात दशकों तक मनुस्मृति के प्रति अपनी निष्ठा को ज़ाहिर नहीं किया. उन्हें पता था कि ऐसा करने से वे भारतीय समाज के बड़े हिस्से को खुद से और अपने राजनीतिक प्रभाव से दूर कर देते.

फिर भी, उसने समय-समय पर संविधान से अपनी मूल असहमति व्यक्त करते हुए प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ हटाने की मांग की. वाजपेयी सरकार ने संविधान मे आवश्यक संशोधन सुझाने के लिए एक कमेटी भी गठित कर डाली, लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला.

2014 और 2019 में भाजपा की चुनावी जीत के बाद संघ परिवार ने बड़ी तेज़ी और शातिर अंदाज़ के साथ उन संवैधानिक संस्थाओं पर हमला किया, जिनमें भारतीय समाज को अधिक समान और न्यायपूर्ण बनाने की क्षमता थी.

उसने ऐसे कानून और नीतियों को तैयार किया, जिनका सबसे अधिक दुष्परिणाम महिलाओं, दलितों, पिछड़ों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को बर्दाश्त करना पड़ा है.

उनके द्वारा लगातार बढ़ाए जा रहे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल ने इस प्रक्रिया में बहुत सहयोग किया- सबसे अधिक असमान लोगों की असमानता और भी अधिक बढ़ा दी गई और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते इसके विरुद्ध आक्रोश और प्रतिरोध भी काफी मंद पड़ गया.

हिंदू राष्ट्र की बुनियादी सोच से प्रेरित यह कार्य पिछले 6 वर्षों से चल रहा है. इस प्रक्रिया से तमाम लोग चिंतित हैं लेकिन बहुसंख्यक समुदाय का बड़ा हिस्सा आश्वस्त है कि इससे केवल अल्पसंख्यकों के लिए खतरा पैदा हो रहा है.

जहां तक उनका अपना सवाल है उन्हें लगता है कि उन्हें इस नई समाज-रचना द्वारा एक वर्चस्व का स्थान प्राप्त होगा. सच्चाई इससे बिल्कुल परे है.

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हिंदू राष्ट्र का ढांचा और उसकी दिशा मनु के कानूनी ढांचे के अंतर्गत ही तैयार होंगे. यह कानून जन्म-आधारित असमानता के हर पहलू को मजबूत करने वाला हैं- सामाजिक, आर्थिक (पेशे से संबंधित) और लैंगिक.

यह असमानताएं कभी न समाप्त होने वाली हैं. इनसे कभी छुटकारा नहीं मिल सकता. जन्म से ही समाज में स्थान तय होगा, पेशा तय होगा. यह पेशे ‘पवित्र’ और ‘अपवित्र’ माने गए हैं और जो जितना असमान है, उसके लिए उतना ही अधिक अपवित्र पेशा तय किया गया है.

पेशा बदलने का प्रयास, घोर पाप समझा गया है. इस संदर्भ में सवर्णों द्वारा पिछड़ों और दलितों के शिक्षा और सरकारी पेशों के क्षेत्रों में विधान द्वारा दिया गया आरक्षण का अधिकार, जिसे कभी भी पूरी तरह लागू नहीं किया गया है, के प्रति घोर रोष को देखने की आवश्यकता है.

यही वह क्षेत्र हैं जिनमें मनुस्मृति उनका प्रवेश वर्जित करती है. उसके अनुसार, अपने पेशे को बदलकर अपने से ऊंची जाति के पेशे को प्राप्त करने का विचार करना भी दंडनीय पाप है.

पिछले 6 सालों में आरक्षण की नीति पर हुए तमाम सरकारी प्रहार मनुवादी प्रहार के रूप में देखे जा सकते है. सच तो यह है कि असली आरक्षण की नीति तो मनुस्मृति में देखने को मिलती है- सवर्ण जातियों के लिए शिक्षा और अच्छे पेशों का संपूर्ण आरक्षण.

इसी आरक्षण को सवर्णों का एक हिस्सा, जो भाजपा का अंध समर्थक है, फिर से पाने की फेर में है. हालांकि उसे पाकर भी उनकी बेरोजगारी दूर होने वाली नहीं है.

महिलाओं की असमानता तो उनके जन्म से जुड़ी हुई है ही और उसे तरह-तरह से मनुस्मृति बनाए रखती है. उनको नियंत्रित रखने के लिए जो तमाम बंधन तैयार किए गए हैं, वह उन्हीं कि नहीं बल्कि पूरे समाज की असमानता बनाए रखने के लिए अनिवार्य हैं.

मनुस्मृति के अनुसार, समाज की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था- वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हर जाति के अंतर्गत ‘पवित्र’ संतान का पैदा होना अनिवार्य है, ऐसी संतान जिसके माता-पिता एक ही जाति के हैं. मिश्रित जाति की संतान के पैदा होने से, वर्णव्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी.

पवित्र संतान ही पैदा करने के लिए महिलाओं को नियंत्रित रखना और उनके अंदर अपने लिए बनाए गए बंधनों के तोड़ने के लिए बताए गए सख्त दंड के भय को बनाए रखना ज़रूरी है. यही उनकी असमानता और अधिकार-विहीन होने का राज़ है.

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