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मोदी सरकार के प्रोजेक्ट डॉल्फिन से पर्यटन नहीं बढ़ सकता क्योंकि गंगा की डॉल्फिन फिल्मी नहीं

-द प्रिंट,

देश के नेतृत्व से व्यावहारिक विचार की आशा रहती है और वे महान विचार की जिद पर अड़े रहते
हैं.

एक कहानी सुनिए– दो दशक पहले की बात है. 1989 के दिसंबर की सर्दियां थीं. देश में कुछ महीनों वाले प्रधानमंत्रियों का दौर शुरू हो गया और उस समय जिम्मेदारी संभाल रहे थे राजा मांडा वीपी सिंह. उन्हें बताया गया कि पूर्ववर्ती राजीव गांधी ने गंगा में एक कछुआ सेंचुरी का सपना देखा था जिसकी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. यह सेंचुरी पटना से भागलपुर के बीच विकसित की जानी है क्योंकि इसी इलाके में डॉल्फिन सेंचुरी भी बनाने पर विचार किया जा रहा है. वीपी सिंह ने कहा, यह अच्छा विचार है बस थोड़ी जगह बदलकर इसे अपर स्ट्रीम में यानी इलाहाबाद–बनारस की तरफ होना चाहिए ताकि हमारी मांडा की प्रजा को भी लगे कि हमने उन्हें शानदार कछुओं से नवाजा है.

आनन-फानन में कछुआ सेंचुरी को बनारस के रामनगर तक लाया गया. पर्यावरण कार्यकर्ताओं की बात सुनने का मौसम तो खैर कभी रहा ही नहीं, इसलिए कछुआ सेंचुरी का विरोध नक्कारखाने की आवाज बन कर रह गया. बनारस के रामनगर में कछुआ सेंचुरी बना दी गई. इस इलाके में रेत खनन और फिशिंग पर भी पूरी तरह रोक लागू कर दी गई. खनन पर रोक का परिणाम यह हुआ कि रामनगर क्षेत्र में रेत के टीले बन गए. टीले बनने से पानी का ज्यादा झुकाव बनारस के घाटों की तरफ हो गया, जिससे घाटों की सीढ़ियां बैठ गईं यानी दुनिया के सबसे पुराने शहर के घाटों को अपूरणीय नुकसान हुआ.

सेंचुरी का विचार इस इलाके में अव्यवाहारिक था. फिर हुआ यूं कि गंगा में हर साल की तरह बाढ़ आई और कछुएं परिवार सहित बहकर पटना पहुंच गए जहां उनका शिकार कर लिया गया. अब सेंचुरी में सब कुछ था सिर्फ कछुए नहीं थे. ठीक उसी तरह जैसे प्रोजेक्ट टाइगर के सिरमौर रहे सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान में कई सालों तक एक भी टाइगर नहीं था.

फिर भी कछुआ सेंचुरी कागजों पर जिंदा रही क्योंकि इसका एक बजट भी होता है.

वक्त बीता और सुल्तानगंज से कहंलगांव के बीच विक्रमशिला डॉल्फिन सेंचुरी भी बना दी गई. अनुमान है कि इस समय गंगा और उसकी सहायक नदियों में तकरीबन साढ़े तीन हजार डॉल्फिन और इतनी ही संख्या में कछुए हैं.

वर्तमान के अति आशावादी दौर में लौटते हैं. अति आशावाद उसे कहते है जिसमें जनता और सरकार सिर्फ आगे की ओर देखते हैं और उम्मीदों से भरे होते हैं. इस दौर में पिछले पखवाड़े या पिछले साल देखें गए सपने पर विचार नहीं किया जाता. यानी सिर्फ आगे देखो और आगे बढ़ो.

15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से एक सपना गूंजा. सरकार प्रोजेक्ट डॉल्फिन शुरू करेगी, जिसमें नदियों और तटीय क्षेत्रों में डॉल्फिन को पोसा जाएगा ताकि रोजगार और पर्यटन बढ़े. अब गंगा डॉल्फिन से पर्यटन कैसे होगा इसे थोड़ा समझ लीजिए. यदि आपने अब तक डॉल्फिन को सिर्फ अजूबा फिल्म में अमिताभ बच्चन की मां बने देखा है तो यह जानना और भी जरूरी है कि गंगा डॉल्फिन कोई फिल्मी डॉल्फिन नही है. स्थानीय भाषा में इसे सूंस कहते हैं. यह समुद्र के डॉल्फिन की तरह जंप नहीं कर सकती, बिल्कुल भी नहीं. यह एक स्तनधारी है और इसे सांस लेने के लिए पानी के ऊपर आना होता है. सूंस एक सेकेंड से भी कम समय के लिए पानी के ऊपर आती है और फिर अंदर चली जाती है. इसीलिए इसके फोटोग्राफ भी कम उपलब्ध होते हैं, मीडिया में जो फोटो दिखाए जा रहे हैं वे सब समुद्री डॉल्फिन के हैं, चाहे तो गूगल कर लीजिए.

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