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‘क’ से कोरोना नहीं, ‘क’ से करुणा

-न्यूजलॉन्ड्री, 

अपनी रोज की चिर-परिचित दुनिया अपनी ही आंखों से बदली हुई, बदलती हुई दिखाई दे रही है. कल तक जो निजी शक्ति के घमंड में मगरूर थे आज शक्तिहीन याचक से अधिक व अलग कुछ भी बचे नहीं हैं. बच रहे हैं तो सिर्फ आंकड़े… मरने के… और मरने से अब तक बचे रहने के.

कोई हाथ जोड़ कर माफी मांग रहा है जबकि उसकी सूरत व सीरत से माफी का कोई मेल बैठता नहीं है… असहायता व मौत सामने देख कर कितने ही हैं जो महानगरों से भाग चले हैं बिना यह जाने कि वे एक मौत से निकल कर, दूसरों की मौत लिए दूसरी मौत के मुंह में ही जा रहे हैं. और शक्ति की ऊंची कुर्सी पर बैठा कोई उनसे कह रहा है कि आप मेरा शहर छोड़ कर मत जाइए. हम आपके लिए खाने-पानी और निवास की व्यवस्था करेंगे.

जनाब, यदि आपने यह पहले ही कहा होता, किया होता तो आज इतने कातर बनने की नौबत ही क्यों आती. पद की ताकत का नशा उतरता है तो सब कुछ इतना ही खोखला और कातर हो जाता है. आप देखिए न, दुनिया के पहले और दूसरे नंबर की इकॉनमी होने का दावा करने वालों के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं, उनके चेहरे की रंगत बदली हुई है.

कोरोना का मुखौटा लगा कर मौत ने सबसे गहरा वार उन देशों पर किया है जो आधुनिक सभ्यता व विकास के सिरमौर बने फिरते थे. और जिनका उच्छिष्ट बटोरने को हम हर दूसरे दिन किसी-न-किसी यात्रा पर निकलते थे. और चंपू लोग कहते थे कि यह नई डिप्लोमेसी है. अब सब कुछ लॉकडाउन है. ऐसी दुनिया पहले कब देखी थी हमने? कभी दादी-नानी बहुत याद कर-कर के बताया करती थीं कि कैसे उनके गांव में हैजा, प्लेग फैला था और फिर कैसे गांव ही नहीं बचा था. कैसे एक दिन बैलगाड़ी पर लाद कर अपना गांव वे सब कहीं निकल गए थे, जो निकलने के लिए जिंदा बचे थे.

उनकी यादें भी अब उस बहुत पुराने फोटोग्राफ-सी बची थीं जिनका रंग बदरंग हो गया है. जो समय की मार खा कर फट गया है. उसमें जो दिखता है वह आकृतिहीन यादों का कारवां है जिसे वे ही पहचान पाते हैं और कह पाते हैं जिन्होंने उसे कभी ताजादम, रंगीन देखा था. दादी-नानी कहती थीं कि हम तब बच्चा थे न. लंबे समय बाद जब नाना-दादा कोई अपना गांव-घर देखने गए थे तो उन्हें वहां अपना पूरा गांव वैसा ही खड़ा मिला था जैसा छोड़ कर वे गए थे.

इससे मेरी समझ में यह बात आई कि जहां आदमी नहीं होता है वहां कुछ भी खराब या बर्बाद नहीं होता है. मैंने यह कहा भी, यादों को समेटती दादी-नानी ने मुझे काटा नहीं, बस इतना कहा कि आदमी नहीं है जहां वहां घर-मकान हो सकते हैं, जिंदगी कहां होती है. तो तुम्हारे दादा-नाना को गांव के सारे घर-झोपड़े वैसे ही मिले जैसे वे थे. बस नहीं मिला तो कोई आदमी कहीं नहीं मिला. जो मरे और जो मरने से डर कर गांव छोड़ कर चले गए, गांव के लिए तो वे सब मर गए न!

तो गांव अपने घर-झोंपड़े संभाले वैसा ही खड़ा था जैसे इंतजार में हो कि कोई आए तो जीवन आए. वे कहती थीं कि गांव में कहीं कोई कुत्ता या चिड़िया भी आपके दादा-नाना को नहीं दिखाई दिया. फिर खुद को संभालती हुई कहतीं कि आदमी नहीं तो कुत्ता-बिल्ली भी क्या रहेगी.

तो कोरोना पहला नहीं है जो आदमी को जीतने या आदमी को हराने आया है. बात कुछ यों भी समझी जा सकती है कि सृष्टि के अस्तित्व में आने के बहुत-बहुत बाद आदमी का अस्तित्व संभव हुआ था. यह प्राणी दूसरे प्राणियों से एकदम अलग था. यह रहने नहीं, जीतने आया था. इसे साथ रहना नहीं, काबू करना था, लेकिन सारे दूसरे प्राणी, वायरस या विषाणु आदि कैसे समर्पण कर देते. सारी सृष्टि आसानी से आदमी के काबू में नहीं आई. जब, जिसे, जहां मौका मिला उसने आदमी पर हमला किया. आप याद करें तो पिछले ही कुछ वर्षों में कितने ही विषाणुओं के हमले की आप याद कर सकते हैं. सबने इसका नामो-निशान मिटाने की कोशिश की. कितनी ही महामारियों ने इसे गंदे दाग की तरह धरती से साफ करना चाहा. प्रकृति ने इसे हर तरह की प्रतिकूलता में डाला. इसने हर तरह की लड़ाई लड़ कर अपना अस्तित्व बचाया.

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