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ग्राउंड रिपोर्ट: सरकारी घोषणाओं के बावजूद क्यों पलायन को मजबूर हुए मजदूर

-न्यूजलॉन्ड्री,

रविवार सुबह के नौ बजे आनंद विहार बस अड्डे के पास इंडियन ऑयल पेट्रोल पंप के सामने सैकड़ों की संख्या में दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान से आए मजदूर जमीन पर बैठे हुए हैं. दिल्ली सरकार ने इन्हें इनके घर तक पहुंचाने के लिए प्राइवेट बसें तैनात की हैं. कंडक्टर और दिल्ली पुलिस के जवान की पहली ही आवाज़ गोरखपुर... की आई और सैकड़ों की संख्या में लोग बस की तरफ लपक पड़े.

इसमें कुछ गोरखपुर के हैं तो कुछ बिहार के हैं. पुलिस थोड़ी सख्ती दिखाते हुए लोगों को धीरे-धीरे गाड़ी के अंदर पहुंचाती है. एक बस लोगों को लेकर निकलती हैं, इस बीच और लोग जमा हो जाते हैं. घंटों तक लोगों के आने और जाने का यह सिलसिला जारी रहा.

इंडियन ऑयल पेट्रोल पम्प के पास उज्ज्वला योजना का एक विशाल विज्ञापन लगा हुआ है. उसपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक मुस्कुराती हुई तस्वीर है. विज्ञापन पर लिखा है ‘ये मेहनत थी, इस मुस्कान के लिए’. मुस्कान को बोल्ड करके लाल रंग में लिखा गया है. इसी विज्ञापन के सामने हज़ारों की संख्या में लोग अपनी बदहाली का सर्टीफिकेट माथे पर चिपकाए अपने गांव-गिरांव लौटने के लिए जमा हैं.

इसी मौके पर हमारी नज़र एनडीआरएफ की एक टोली पर पहुंची. उसमें से कुछ सदस्य लोगों के हाथों में सेनेटाइज़र डालते हैं. यह सब चल ही रहा था कि तभी हरियाणा के सोनीपत से पैदल चलकर झांसी के लिए निकले कुछ लोग वहां आ धमके. अपने ठेले पर सामान लादे कुछ मर्द, बच्चे और औरतें ठीक उसी विज्ञापन के सामने खड़े हो जाते हैं जहां से प्रधानमंत्री की तस्वीर मुस्कान का दावा प्रचारित कर रही थी.

सोनीपत से गुरुवार की शाम 13 लोगों की यह टोली चली थी जो तीन दिन बाद दिल्ली पहुंची हैं. झांसी के रहने वाले आदिवासी समुदाय के ये लोग सोनीपत में मजदूरी करके जिंदगी बसर कर रहे थे. रहने के लिए इन्होंने एक झुग्गी बना रखा था. लॉकडाउन होने के पहले से ही इनका काम बंद हो गया था. इस टोली में महिलाओं और बच्चों की संख्या ज्यादा है. यहांसे उन्हें झांसी के लिए बस मिल सकती थी लेकिन मंगल आदिवासी अपनी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ बस से नहीं जाने का फैसला लेते हैं.

वो न्यूजलॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘मैं पैदल ही जाऊंगा क्योंकि मैं अपना ठेला यहां नहीं छोड़ सकता हूं. आठ हज़ार रुपए में दो महीने पहले ही इसे खरीदा है. बस पर ठेला रखने को तैयार नहीं हैं. इसलिए मैंने अपने रिश्तेदारों को बस से चले जाने के लिए कह दिया और खुद अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर पैदल निकल रहा हूं. मैंने अपनी घरवाली को भी बोला कि बस से चली जा, लेकिन यह मान नहीं रही.’’

बातचीत को बीच में काटते हुए मंगल आदिवासी की पत्नी मालती कहती हैं, ‘‘अब ये पैदल आते और मैं गाड़ी से. ठीक नहीं लगता. रिश्तेदार बस से जाने को तैयार हो गए. हम इन्हें अकेले नहीं छोड़ सकते. रास्ते में क्या हो कौन जाने. किसी एक की तबीयत खराब होगी तो कोई दूसरा दवाई लाएगा. ध्यान रखेगा. आठ-नौ दिन में पहुंच जाएंगे.’’

दिल्ली से झांसी की दूरी लगभग पांच सौ किलोमीटर है. अपने छोटे-छोटे बच्चे को ठेले पर सुलाकर मंगल आदिवासी ठेला खींचने लगते हैं और उनकी पत्नी पीछे से धक्का देती है.

क्या वहां खाने को नहीं मिल रहा था. सरकार या आसपास के लोगों ने कोई मदद नहीं की. इस पर मंगल कहते हैं कि एकाध दिन कुछ लोग खाना देने आए थे. उसके बाद जो पैसे थे उसे हमने खाने में खर्च कर दिया. जब हमें खाने की दिक्कत आने लगी तो हमने वापस लौटने का तय कर लिया. रास्ते में जगह-जगह लोगों ने ज़रूर खाने को दिया लेकिन सरकारी राहत नहीं मिली. हमारा तो वहां कोई कार्ड ही नहीं था तो हमें राशन कहां से मिलता.’’

मंगल ठेले को खींचते हुए निकल पड़ते हैं. ठेले पर लोगों द्वारा दिया गया खाने का पैकेट,बिस्कुट और केला रखा था. एकाध पानी का बोतल भी.पिछले महीने ही मंगल अपने तमाम रिश्तेदारों के संग मजदूरी करने के लिए सोनीपत गए थे लेकिन अब उन्हें लौटना पड़ रहा है. मंगल जा रहे होते है तभी मजदूरों का एक दूसरा झुण्ड वहां आ पहुंचता है.

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