Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/our-government-and-police-behavior-during-the-corona-pandemic.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | महामारी के दौरान हमारी सरकार और पुलिसिया बर्ताव | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

महामारी के दौरान हमारी सरकार और पुलिसिया बर्ताव

-न्यूजलॉन्ड्री,

किसी बड़ी महामारी के बीत जाने के बाद, उससे जुड़े कुछ दृश्य और घटनाएं लोक-चेतना में स्थाई निवास बुन लेते हैं. कोरोना की दो लहरों के दौरान हुई मीडिया कवरेज में प्रवासी मजदूरों की घर वापसी, जलती चिताएं, ऑक्सीजन सिलेंडर भरवाने के लिए भागते लोग, स्वास्थ्य व्यवस्थाएं, लोगों के साथ पुलिसिया बर्ताव और सरकारी विज्ञापनों की तस्वीरों और खबरों ने हमारे जेहन में स्थाई जगहें बनाई. भविष्य में जब भी कोरोना महामारी को हम याद करेंगे तो ये सब तस्वीरें हमारे आगे तैरती हुई मिलेंगी.

कोरोना काल में दूसरी लहर के दौरान रिपोर्टिंग करते हुए मुझे सोनीपत के कुंडली इंडस्ट्रियल एरिया में मध्यप्रदेश के रहने वाले एक बुजुर्ग मजदूर मिले. सिर पर सामान की गठरी बांधकर वह एक ट्रक का इंतजार कर रहे थे जो उन्हें उनके गृह जिले तक छोड़ने वाला था. मैंने उनसे रेल या बस से यात्रा न करने के कारण के बारे में पूछा तो वह गुस्से से लाल हो गए और उनकी आंखें गीली हो गईं. उन्होंने बताया कि पिछले लॉकडाउन में वह एक बस से घर के लिए रवाना हुए थे लेकिन यूपी बॉर्डर पर पुलिस से मार खाकर वापस लौट आए थे. उन्होंने अपनी गीली आंखों से निकलते हुए आसुओं को पोंछकर अपना कुर्ता उघाड़ दिया और अपनी नंगी पीठ दिखाते हुए कहा, “इस बीमारी से एक तो हम मजदूरों के पेट पर लात पड़ती है और हमारी पीठ पर पुलिस की लाठियां.”

उनकी ढ़ीली मटियल खाल पर गेहुएं पड़ चुके लंबे-लंबे निशान करीब एक साल पुराने हो चुके थे, लेकिन उनकी आंखों के कौर से बह निकले आंसु दर्द हरे होने की गवाही दे रहे थे.

कोरोना की पहली लहर के दौरान लगाए गए लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों के साथ हुए पुलिसिया बर्तावों को कई लोग “लॉ एंड ऑर्डर” जैसे भारी भरकम शब्दों से बचाव करने की कोशिश करते हैं. यह सही है कि लोकतंत्र की केंद्रीय विशेषताओं में से एक कानून के शासन का पालन है. यह बेशक किसी सरकारी कागज पर एक शासकीय सिद्धांत के रूप में मौजूद हो सकता है, लेकिन जमीन पर वास्तविकता पूरी तरह से अलग हो सकती है. महामारी की पहली लहर के दौरान पुलिस के कामकाज की कुछ ऐसी ही स्थिति देखी गईं.

कोविड- 19 महामारी में पुलिस व्यवस्था पर कॉमन कॉज द्वारा किए गए एक अध्ययन में तीन पुलिस कर्मियों में से केवल एक ने लॉकडाउन के दौरान कानून और व्यवस्था बनाए रखने और अपराधों की जांच करते हुए कानूनी प्रक्रियाओं का पूरी तरह से पालन करने में सक्षम होने की सूचना दी है. इस अध्ययन में लगभग 49% पुलिस कर्मियों ने घर वापस जाने वाले प्रवासी कामगारों के खिलाफ अक्सर बल प्रयोग करने की बात स्वीकारी है. इसके अलावा, लगभग 33% ने यह भी स्वीकारा कि घर वापस जाने की कोशिश कर रहे प्रवासियों को रोकने के लिए उन्होंने बल प्रयोग किया.

लॉकडाउन के दौरान, यहां तक कि सख्त लॉकडाउन नियमों के मामूली उल्लंघन के मामलों में भी, पुलिस द्वारा बल प्रयोग और पुलिस की बर्बरता आमतौर पर रिपोर्ट की गई. इससे पुलिस और लोगों के बीच टकराव की स्थिति भी कई जगह पैदा हुई. पुलिसिया बर्ताव के कारण ही आम लोगों में पुलिस के भय का स्तर काफी बढ़ गया था. लगभग तीन आम लोगों में से एक (33%) ने लॉकडाउन के दौरान नागरिकों और पुलिस के बीच लगातार टकराव की सूचना दी.

आम लोगों ने लॉकडाउन के दौरान वर्णमाला से भ से पुलिस का भय कहना सीख लिया था. आम लोगों में अधिकांश (55%) ने लॉकडाउन के दौरान पुलिस से डरने की सूचना दी. पांच में से लगभग तीन ने पुलिस द्वारा जुर्माना लगाए जाने (57%) और पुलिस (55%) द्वारा पीटे जाने की सूचना दी.

महामारी की पहली लहर के दौरान प्रवासी श्रमिक यकीनन सबसे बुरी तरह प्रभावित थे, और उन्हें आर्थिक असुरक्षा, राहत योजनाओं और आवश्यक सेवाओं की कमी जैसी कई चुनौतियों से जूझने के लिए छोड़ दिया गया था. घरों और परिवारों से दूर रहने के कारण उनकी परेशानी और बढ़ गई थी. इस सर्वेक्षण के अलावा भी, प्रवासियों और राहतकर्मियों के एक अलग तत्विरक सर्वेक्षण के कुछ निष्कर्ष भी पुलिस की बर्बरता और प्रवासियों के साथ हुई ज्यादतियों की ओर इशारा करते हैं.

कोरोना की पहली लहर के दौरान घर वापस लौट रहे प्रवासी मजदूरों पर जब उत्तरप्रदेश के बरेली में केमिकल का छिड़काव किया गया तो पुलिस बर्ताव का वर्गीय और जातीय चरित्र भी हम सबके सामने था. लॉकडाउन और इसके मद्देनजर पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई वंचित समूहों जैसे कि गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के लिए सख्त थी. मुख्यत: तो इन समुदायों को लॉकडाउन के कारण अधिक नुकसान का सामना करना पड़ा. इन समुदायों को भोजन या राशन जैसी आवश्यक चीजों तक पहुंचने में कठिनाई हो रही थी. दूसरा, उन्हें किरायेदारों (मकान मालिकों) द्वारा निकाल दिए जाने के कारण भी बेघर होना पड़ा था. इस अवधि के दौरान पुलिस द्वारा उनके साथ किए गए भेदभाव से उनकी परेशानी और बढ़ गई थी.

लॉकडाउन के दौरान, अमीरों की तुलना में सबसे गरीब और निम्न वर्ग के दोगुने से अधिक लोगों को बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. कोविड-19 महामारी में पुलिस व्यवस्था नामक अध्ययन के अनुसार, “लॉकडाउन में अमीरों की तुलना में गरीब वर्ग के लोगों को मकान मालिकों द्वारा जबरन बेदखल किए जाने की संभावना तीन गुना अधिक थी. दलितों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को लॉकडाउन के दौरान जबरन बाहर निकाले जाने की भी सबसे अधिक संभावना थी. लॉकडाउन के दौरान पुलिस की धारणाओं में भी स्पष्ट वर्ग विभाजन था. गरीब और निम्न वर्ग के लोग लॉकडाउन के दौरान पुलिस से अधिक भयभीत थे. अमूमन, वे अधिक तो पुलिस द्वारा की जाने वाली शारीरिक हिंसा से डर रहे थे. वे इस दौरान पुलिस द्वारा दिए जाने वाले निर्देशों को धमकी के रूप में देख थे.”

सहायता कर्मियों के एक अलग त्वरित अध्ययन के अनुसार, एक तिहाई से अधिक सहायता कर्मियों का मानना है कि पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान बेघर लोगों, झुग्गीवासियों और प्रवासी श्रमिकों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया. दो में से एक सहायता कर्मी का यह भी कहना है कि पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान मुसलमानों के साथ भेदभाव किया, जिसमें 50 प्रतिशत ने अधिक या मध्यम स्तर के भेदभाव की सूचना दी.

अचानक हुए लॉकडाउन ने न केवल देश भर में आम लोगों पर, बल्कि लॉकडाउन को लागू करने वाले पुलिस कर्मियों पर भी भारी असर डाला. प्रशिक्षण, संसाधनों की कमी, कर्मचारियों की कमी के कारण पुलिस कर्मी बहुत निम्न स्तर की तैयारियों के साथ अपना दायित्व निभा रहे थे. पुलिस कर्मियों को जितनी बड़ी जिम्मेदारियां दी गई थीं, क्या वे इतने बड़े काम को संभालने के लिए सही ढंग से प्रशिक्षित और संसाधन युक्त थे. पुलिस अध्ययन से यह पता चलता है कि टियर II/III शहरों की तुलना में टियर I शहरों में पुलिस कर्मियों को लॉकडाउन के दौरान बेहतर सुविधाएं प्रदान की गई थीं. टियर I शहरों में पुलिस के पास महामारी के दौरान ड्यूटी के लिए उपकरणों का अधिक प्रावधान था, बेहतर स्वच्छता की स्थिति, अधिक बीमा कवर, विशेष आवास जैसे सुरक्षा व्यवस्था, विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले कर्मियों का उच्च अनुपात और लॉकडाउन के दौरान अधिक विभागीय रूप से व्यवस्थित स्वास्थ्य जांच.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.