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आवरण कथा/ महिला किसान : खेत-खलिहान की गुमनाम बेटियां

-आउटलुक,

“‘किसान’ की आम छवि में नदारद, अर्थशास्त्रियों की गणना से बाहर, जमीन के कागजात में गैर-मौजूद हमारी खेती-किसानी की अदृश्य आधी आबादी पर किसान आंदोलन से पड़ी रोशनी”

यह भारत का एक बेहद शर्मनाक रहस्य है। भारत का ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व का। जिस 'औपचारिक' अर्थव्यवस्था की हम अक्सर चर्चा करते हैं, जहां लोग परिश्रम करते हैं और उनके परिश्रम के फल को आंकड़ों और ग्राफ में दर्शाया जाता है, उसका हमेशा एक स्याह पक्ष होता है। इन आंकड़ों में एक बड़े वर्ग का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं होता। आपने वह क्रांतिकारी नारा सुना होगा कि ‘औरतें आधा आसमान हैं।’ इसका वास्तव में अर्थ यह है कि महिलाएं आधी धरती की जुताई, रोपाई और फसल की कटाई करती हैं। वे पुरुषों से अधिक मेहनत भले ही न करें, उनसे कम तो बिल्कुल नहीं करती हैं। लेकिन उनके इस श्रम की किसी ने गणना ही नहीं की। आखिर तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमा पर डटे किसानों के बीच महिलाओं की भागीदारी पहली बार उन्हें चर्चा में ले आई है। आंदोलन गंभीर मुकाम पर पहुंच गया है और 21 जनवरी को किसान यूनियनों ने सरकार की यह पेशकश ठुकरा दी है कि कानूनों को डेढ़ साल के लिए मुल्तवी करके समाधान के लिए समिति बना ली जाए। लेकिन सवाल है कि महिला किसान क्यों अब तक क्यों चर्चा से दूर रही है?

आपने एक तस्वीर अनेक बार देखी होगी, जिसमें कतार में खड़ी महिलाएं धान की रोपाई करती हैं। कीचड़ में धंसी और झुकी, ये महिलाएं पूरे दिन काम करती हैं और हमारे लिए अनाज उपजाती हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में सिर पर घड़ा रख पानी लाने मीलों दूर जाती महिलाएं, फसल की कटाई के बाद उसे थ्रेसर मशीन में डालती और ओसाती महिलाएं।

लोक संगीत और कला में ये बातें बहुत नजर आती हैं। हिंदी सिनेमा की एक प्रतिनिधि तस्वीर है जिसमें नायिका कंधे पर हल लिए हुए है और उसके माथे से पसीना बह रहा है। लेकिन न तो मदर इंडिया की वह तस्वीर और न ही यमुना से पानी लेकर लौट रही गोपियों को छेड़ते कृष्ण से जुड़े पारंपरिक गीत हमारे सोचने के तौर-तरीके को बदलते हैं। जवान की तरह किसान का मतलब भी हम पुरुष को ही समझते हैं। आम रूपकों में, पारिश्रमिक और जीडीपी की गणना में, कानूनी रूप से जमीन का मालिकाना हक तय करने में हम धरती की बेटियों को भूल जाते हैं। उनके परिश्रम का फल चखने के बाद हम उन्हें ‘अदृश्य’ कर देते हैं।

वास्तव में देखा जाए तो यह इतना बड़ा अपराध है जिसकी कोई सीमा नहीं, और हम सब उसमें शामिल हैं। हम सब उसके लिए दोषी हैं। स्त्रियों के प्रति यह भेद हमारे भीतर इतना रच-बस गया है कि सुप्रीम कोर्ट भी उससे अछूता न रह सका। देश में चल रहे किसान आंदोलन पर सुनवाई करते हुए 11 जनवरी को प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने पूछ लिया, “धरने की जगह पर महिलाओं और वृद्धों को क्यों रखा गया है?” महिलाओं को धरना स्थल पर ‘रखने’ की बात से ऐसा प्रतीत होता है कि महिलाएं, महिलाएं नहीं बल्कि मशीनी मानव हैं, और उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं है। बुजुर्गों के साथ उन्हें जोड़ कर देखना इस मानसिकता को दर्शाता है कि वे कमजोर और आश्रित हैं। नजरिया यही है कि ‘महिलाओं को जाने दिया जाए और पुरुष इस मामले से निपटेंगे।’ यह मानसिकता उस समय की है जब महिलाएं गुलाम हुआ करती थीं, उनका न कोई विचार होता था और न ही कोई अधिकार।

पितृसत्ता में डूबे भारतीय समाज और कानून में इस अधिकार की कोई जगह नहीं है। महिलाओं के अधिकार तो जैसे सिर्फ भावनात्मक हैं, परिवार के भले के लिए जिसकी उन्हें तिलांजलि देनी पड़ती है, यही उनका धर्म है। स्त्रियां काम करें, लेकिन बदले में कुछ न मांगें, क्योंकि वे तो सिर्फ पुरुषों के लिए है। नजरें घुमाइए, आसपास ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।

हरमिंदर कौर को ही लीजिए। वे पंजाब की किसान हैं। वही पंजाब जहां के किसान अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। दो साल पहले जब हरमिंदर के पति की मौत हो गई तब उनका जीवन जैसे थम गया। तब वे सिर्फ 28 साल की थीं। उनके दो बच्चे थे। पति का अंतिम संस्कार होने से पहले ही ससुराल वालों ने उन्हें बेघर कर दिया। मजबूरन हरमिंदर को बठिंडा में अपने पैतृक घर आना पड़ा। 2005 में शादी के बाद हरमिंदर ने पति के साथ खेत में काम किया था, लेकिन आज उनके नाम जमीन नहीं है। वे 14 साल से मेहनत करके बच्चों को पाल रही हैं लेकिन आज तक अपना अधिकार हासिल नहीं कर सकीं।

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