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'पक्ष'कारिता: ‘उदन्‍त मार्तण्‍ड’ की धरती पर हिंदूकरण (वाया हिंदीकरण) की उलटबांसी

-न्यूजलॉन्ड्री,

पश्चिम बंगाल के ऐतिहासिक बताए जा रहे असेंबली चुनाव में अगर इस बात को ध्‍यान में रखा जाय कि देश का पहला अंग्रेज़ी का अखबार और पहला हिंदी का अखबार, दोनों ही कोलकाता से छपना शुरू हुए थे, तो इस चुनाव को देखने-समझने की एक अलग दृष्टि हम पा सकते हैं. पश्चिम से छापाखाने का आना, अखबारों का छपना और सूचनाओं का सार्वजनिक वितरण कई मायने में उस परिघटना का बुनियादी आयाम है जिसे हमने बाद में ‘आधुनिकता’ कहा. ईस्‍ट इंडिया कंपनी का कोलकाता से प्रवेश, जेम्‍स ऑगस्‍टस हिक्‍की के बंगाल गजेट का प्रकाशन, उसके बाद विलियम दुआने और थॉमस जोन्‍स का बंगाल जर्नल छपना और अंत में भाषायी पत्रकारिता की शुरुआत पंडित जुगल किशोर शुक्‍ल के उदन्त मार्तण्ड से होना- ये सब मिलकर बंगाल को आधुनिकता की एक व्‍यवस्थित ज़मीन मुहैया कराते हैं. इन्‍हीं आयामों से आगे चलकर उन्‍नीसवीं सदी के अंत तक बंगाली राष्‍ट्रवाद का ठोस उदय होता है जब 1905 में धर्म के आधार पर बंगाल के दो टुकड़े कर दिए जाते हैं.

जो बंगाल ने 1905 में झेला, देश उसका अनुभव 1947 में करता है. इसीलिए हम पाते हैं कि स्‍वतंत्रता संग्राम में जिस भारतीय राष्‍ट्रवाद का आवाहन हमारे नायकों ने किया, वह अनिवार्यत: बांग्‍ला राष्‍ट्रवाद का ही एक व्‍यापक संस्‍करण था. इस लिहाज से बांग्‍ला राष्‍ट्रवाद बनते हुए एक आधुनिक राष्‍ट्र-राज्‍य भारत की मौलिक और प्रारंभिक भावभूमि है, न कि कोई उप-राष्‍ट्रीयता या सब-नेशनलिज्‍म, जैसा कि आजकल हमारे अखबारी विद्वान हमें सिखा रहे हैं.

बीते पखवाड़े मैंने हिंदी के अखबारों में यह खोजने की कोशिश की कि दलबदल, मारपीट, बयानबाजी जैसी मसालेदार चुनावी खबरों से इतर कहीं सांस्‍कृतिक-सामाजिक नज़रिये से कोई रिपोर्टिंग या विश्‍लेषण आया है या नहीं. अपेक्षा इसलिए भी थी क्‍योंकि हिंदी के अखबारों ने तकरीबन एक स्‍वर में तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की चुनावी जंग को ‘’बंगाली राष्‍ट्रवाद बनाम हिंदू राष्‍ट्रवाद’’ के नाम से बार-बार लिखा. जिज्ञासा थी कि कहीं कोई समझाता कि आखिर ये दो किस्‍म के राष्‍ट्रवाद एक-दूसरे के विरोधी क्‍यों मान लिए गए, क्‍या इसके पीछे कोई संपादकीय समझ काम कर रही थी? कोई इतिहासबोध है या फिर नेताओं के कहे-सुने के आधार पर पत्रकार ऐसी हेडिंग लगाए जा रहे हैं? अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि बमुश्किल दो ऐसे लेख मिले जहां सांस्‍कृतिक आयाम और भाषा पर थोड़ी बहुत चर्चा है, वरना सच तो ये है कि हिंदी के अखबारों को कुसंस्‍कारों का कैंसर जैसे निगल ही चुका है.

हिंदी का पतन और डॉ. फरोगी

अभी हम बाकी बंगाल को रहने देते हैं क्‍योंकि मोटे तौर पर पूरा मीडिया बंगाल को कोलकाता से ही कवर कर रहा है. कोलकाता यानी बीते कल का कलकत्‍ता, जहां से आज भी सबसे पुराना जिंदा अखबार दैनिक विश्‍वमित्र 1914 से लगातार छप रहा है और उसके बरक्‍स कभी उसका वैचारिक प्रतिद्वंद्वी रहा सन्‍मार्ग भी लगातार छप रहा है. एक ज़माना था जब दैनिक विश्‍वमित्र में सूचना के बतौर भी धर्म से जुड़े समाचार नहीं छापे जाते थे. बड़ा बाजार के सत्‍यनारायण पार्क में करपात्री जी के भक्‍त इस अखबार की होली जलाया करते थे. इसके मालिक और प्रकाशक बाबू मूलचंद अग्रवाल वैसे तो गांधीवादी थे लेकिन वामपंथियों का खुलकर समर्थन करते थे. विश्‍वमित्र के जवाब में मारवाड़ी समाज के पुरातनपंथियों ने सन्‍मार्ग का प्रकाशन शुरू किया और बनारस से पंडित सूर्यनाथ पांडेय को बुलाकर संपादक बनाया. धीरे-धीरे सन्‍मार्ग ने विश्‍वमित्र को प्रसार और पाठकीयता में काफी पीछे छोड़ दिया. आज भी अन्‍य अखबारों की तुलना में कोलकाता का सन्‍मार्ग पहले स्‍थान पर है.

पुरातनपंथी और हिंदुत्‍ववादी सन्‍मार्ग के हाथों प्रगतिशील विश्‍वमित्र का पतन भी आज से पांच-छह दशक पुरानी बात हो गयी. एक ज़माने में हिंदी के गौरवशाली प्रकाशनों का पतन कम्‍युनिस्‍ट शासन में हुआ, यह एक तथ्‍यात्‍मक बात है. 100 से 1500 रुपये तक की तनख्‍वाह पाने वाला लेक्‍चरार, प्रोफेसर, स्‍कूली अध्‍यापक भी अपने-अपने स्‍तर पर कोलकाता में अनियतकालीन पत्रिका निकाला करता था. ऐसी करीब दर्जन भर पत्रिकाओं का जि़क्र शहर के बुजुर्ग लेखक और पत्रकार गीतेश शर्मा अपने एक संस्‍मरण में करते हैं. वे लिखते हैं कि जो शहर कभी हिंदी की लघुपत्रिकाओं का केंद्र था, आज वहां हिंदी लगभग बोलचाल की भाषा होकर रह गयी है. आज से 70 साल पहले बिहार से भागकर कलकत्‍ता आए गीतेश शर्मा के इन शब्‍दों को ध्‍यान से पढ़ें-

‘’कलकत्‍ता, जो कभी राष्‍ट्रीय स्‍तर पर हिंदी का केंद्र होता था, उसकी आज कोई राष्‍ट्रीय पहचान नहीं है. राष्‍ट्रीय तो क्‍या, स्‍थानीय पहचान भी नहीं है. महानगर के हिंदी के डॉक्‍टरेट क्‍या उर्दू के शायर शाहिद फरोगी के नाम से भी परिचित हैं? डॉ. फरोगी ने उपेंद्रनाथ अश्‍क पर हिंदी में शोध किया. एक तो मुसलमान, दूसरे इनके परिवार में कोई हिंदी विभाग के बड़े पद पर नहीं. वर्ष भर बेकार रहने के बाद ये किचेन का सामान बेचने का धंधा करने लगे.‘’ (“संदर्भ हिंदी: कलकत्‍ता मेरी नज़र में’’; लहक पत्रिका, दिसंबर 2020 अंक)

यहां दो सवाल बनते हैं. पहला, हमारे अखबार और अखबारों में लिखने वाले विद्वान टिप्‍पणीकार बंगाल के जिस हिंदूकरण (वाया हिंदीकरण) पर छाती पीट रहे हैं और भाजपा के आने का डर दिखा रहे हैं, क्‍या वह गीतेश शर्मा नामक पुराने लेखक की चिंताओं से ठीक उलट नहीं जिसके पास बीते 70 साल का लेखा-जोखा है? आखिर क्‍या वजह रही कि कम्‍युनिस्‍ट राज में ही सन्‍मार्ग जैसे प्रकाशन उत्‍कर्ष पर पहुंच गए जबकि दर्जनों लघुपत्रिकाएं बंद हो गयीं? क्‍या यह बंगाल के सीपीएम द्वारा बंगाली अस्मिता के नाम पर हिंदी की उपेक्षा का परिणाम है? एक और उदाहरण उन्‍हीं के लेख से देखिए.

ज्‍योति बसु के मुख्‍यमंत्रित्‍व काल में पश्चिम बंग हिंदी अकादमी का गठन किया गया. गीतेश शर्मा इसमें मनोनीत सदस्‍य रहे. दो कार्यकाल तक ये अकादमी चली. फिर अपने आप डीफंक्‍ट हो गयी. इस वादे के साथ संस्‍कृत कॉलेज के दो कमरे इस आवंटित किए गए थे कि जब इसका अपना भवन बनेगा तो इसे खाली कर देंगे, लेकिन इसके उलट उर्दू अकादमी का तीन तल्‍ले का अपना भवन बन गया जिसमें उसका अपना प्रकाशन संस्‍थान है और उर्दू के किताबों की दुकान भी है. तृणमूल कांग्रेस ने दोबारा हिंदी अकादमी को जिंदा किया है और उसकी नयी कार्यकारिणी गठित की है.

क्‍या सीपीएम ने केवल एक भाषा के तौर पर हिंदी की उपेक्षा की या फिर हिंदी की प्रगतिशील संस्‍कृति को नष्‍ट हो जाने दिया? प्रगतिशील संस्‍कृति के नष्‍ट होने पर जो लंपट संस्‍कृति आयी, जिसे विद्वतजन बंगाल के हिंदीकरण का नाम देते हैं, क्‍या अकेले उसके लिए तृणमूल दोषी है? सवाल उठता है कि भाजपा भी कहां दोषी है? सिवाय इसके कि इसने भाजपा की लंपट संस्‍कृति की राह ही आसान की है.

दो वैचारिक प्रतिनिधि बनाम धंधेबाज

कलकत्‍ता से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं के उत्‍थान और पतन के इस ऐतिहासिक फ्रेम में अब आप अगर हिंदी के अखबारों की मौजूदा रिपोर्टिंग को रख कर देखें, तो थोड़ा साफ हो सकेगा कि आखिर बांग्‍ला राष्‍ट्रवाद बनाम हिंदू राष्‍ट्रवाद की जो बाइनरी खड़ी की जा रही है वो नकली क्‍यों है. इस पर आने से पहले एक बार फिर से हम विश्‍वमित्र और सन्‍मार्ग की ओर चलना चाहेंगे जो एक ज़माने में दो विरोधी वैचारिक ध्रुवों के प्रतिनिधि होते थे. आज दोनों ही अखबारों के पन्‍ने सबसे बड़े विज्ञापनदाता दल भारतीय जनता पार्टी के मोहताज हैं. तृणमूल भी इन्‍हें विज्ञापन नहीं देती. न ही कांग्रेस या वामदल. मतलब पिछले जमाने के वैचारिक अग्रदूत आज की तारीख में चड्ढी बनियान के लोकल विज्ञापनों के दम पर खुद को जिंदा रखे हुए हैं.

दैनिक जागरण आदि बड़े अखबारों को छोड़ दें, तो विश्‍वमित्र और सन्‍मार्ग के बरक्‍स आप अकेले झारखण्‍ड के अखबार प्रभात खबर के कोलकाता संस्‍करण एक बार देख लें. आंखें फटी रह जाएंगी. पिछले एक पखवाड़े में केवल दो दिन 22 और 27 मार्च को छोड़ दें (जब तृणमूल का फुल पेज विज्ञापन पहले पन्‍ने पर था) तो लगातार मास्‍टहेड के नीचे ‘’एबार बीजेपी’’ का विज्ञापन छप रहा है. इतना ही नहीं, निरपवाद रूप से तकरीबन रोज़ाना पहली हेडिंग भाजपा, मोदी या शाह की छापी गयी है. 19 मार्च को लीड हेडिंग में भाजपा और तृणमूल दोनों को कुछ इस तरह से एक साथ समायोजित किया गया है कि भाजपा तृणमूल का जवाब दे रही हो, ‘’दीदी बोले- खेला होबे, बीजेपी बोले- विकास चाकरी व शिक्षा होबे: मोदी’’.

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