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पथ का साथी: लौट रहे प्रवासी गांव में क्या करेंगे, मनरेगा कितना देगा साथ?

-डाउन टू अर्थ, 

डाउन टू अर्थ हिंदी के रिपोर्टर विवेक मिश्रा 16 मई 2020 से प्रवासी मजदूरों के साथ ही पैदल चल रहे हैं। उन्होंने इस दौरान भयावह हकीकत को जाना और समझा। वे गांव की ओर जा रहे या पहुंच चुके प्रवासियों की पीड़ा जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वे कभी अब शहर की ओर रुख करने की हिम्मत भविष्य में जुटा पाएंगे? उनके इस सफर को सिलसिलेवार “पथ का साथी” श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। इस श्रृंखला में विवेक की आपबीती होगी। साथ ही, सड़कों पर पैदल चल रहे प्रवासियों की दास्तान होगी और गांव पहुंच चुके कामगारों के भविष्य के सपने होंगे।

आप यह सब डाउन टू अर्थ के फेसबुक पेज https://www.facebook.com/down2earthHindi/ पर लाइव या वीडियो देख सकते हैं या डाउन टू अर्थ की वेबसाइट https://www.downtoearth.org.in/hindistory पर पढ़ सकते हैं। इस श्रृखंला की पहली कड़ी में आपने पढ़ा, पथ का साथी: दुख-दर्द और अपमान के साथ गांव लौट रहे हैं प्रवासी । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, जिनके लिए बरसों काम किया, उन्होंने भी नहीं दिया साथ। तीसरी कड़ी में गांव लौटते प्रवासियों की मदद के लिए हाइवे से लगते गांव के लोग किस तरह आगे आ रहे हैं। पढ़ें, इससे आगे की दास्तान-

अभी हम शाहजहां पुर नहीं पहुंचे थे कि आउटर पर ही बस को रोक दिया गया। मैं यहां उतर गया। यहां बस्ती जिले के बांसी तहसील में जाने के लिए दो परिवार खड़े थे। इनमें से एक को एक बांसी के ही एक गांव जाना था तो दूसरे को बिहार जाना था। इनके पास दो अलग-अलग रिक्शा थे। रिक्शा क्या, पूरी गृहस्थी का सामान था।

इनमें से एक परिवार में तीन बच्चे, पत्नी और पति थे। पति दिल्ली में होम गार्ड थे और उसी वर्दी में वह निकल आए थे, अपना लगभग सारा सामान इस रिक्शे पर रख कर। यह सोच कर कि अब दिल्ली नहीं लौटेंगे। गांव में ही कुछ कर लेंगे। लेकिन उनकी दिक्कत यह थी कि पुलिस वाले उन्हें रिक्शे के साथ आगे नहीं जाने देना चाहते थे। पुलिस कर्मचारियों ने समझाया कि अपना सामान बस में लाद लो, लेकिन उन्हें लगता था कि यदि पैक किया हुआ सामान खोला तो खून पसीने से कमाया सामान टूट फूट न जाए। इसलिए वह पुलिस अधिकारियों से गुहार लगा रहे थे कि उन्हें रिक्शा में ही सामान रखकर आगे बढ़ने दिया जाए। मैंने उनसे नाम पता जानना चाहा तो उन्होंने बताने से इंकार कर दिया।

दरअसल यहां बरेली-मुरादाबाद से आने वाली बसों को रोका जा रहा था और बसों में बैठे यात्रियों का विवरण नोट करके आगे शाहजहांपुर जाने की इजाजत दी जा रही थी।

इसी भीड़ में खड़े थे शिवम। वह शाहजहांपुर के तिलहर तहसील के थे। वह अहमदाबाद में नौकरी में करते थे। उनके साथ वहां 33 लोग थे। सबने मिल कर 1 लाख रुपया इकट्ठा किया और एक ट्रक वाले को उत्तर प्रदेश आने के लिए दिए, लेकिन ट्रक चालक बीच में छोड़कर फरार हो गया। उनके पैसे वापस भी नहीं दिए। शिवम जब अहमदाबाद से आ रहा था तो मकान मालिक ने किराया मांगा। किराया नहीं था तो अपना लगभग 12-13 हजार रुपए का मोबाइल फोन गिरवी रख आया। इस वजह से वह अपने परिवार से संपर्क भी नहीं कर पा रहा है।

वहां से हमारी बस आगे बढ़ी तो शाहजहां पुर शुरू होते ही रयान इंटरनेशनल स्कूल में एक क्वरांटीन सेंटर बनाया गया था। यहां से आगे जाने वाले लोगों की स्क्रीनिंग की जा रही थी और उन्हें राशन पकड़ाया जा रहा था। सरकार ने कहा था कि हर परिवार को 65 किलोग्राम राशन दिया जाएगा, लेकिन यहां से जो राशन मिल रहा था, वह 25 से 40 किलोग्राम के बीच था, कुछ लोग बहस भी कर रहे थे, लेकिन वहां खड़े कर्मचारियों के रवैये को देखते हुए लोग चुपचाप राशन लेकर आगे बढ़ रहे थे।  

दसअसल, बरेली तक तो जगह-जगह स्थानीय लोगों ने बसों में लौट रहे प्रवासियों के लिए खाने-पीने का इंतजाम किया हुआ था, लेकिन बरेली से शाहजहांपुर के बीच खाने-पीने का इंतजाम नहीं था, इसलिए शाहजहांपुर के इस इलाके में लोगों के लिए रुकना मुश्किल हो रहा था।

बसों ने लोगों को यहीं उतार दिया और यहां से अब लोगों को अपना-अपना किराया खर्च करके आगे अपने गांव जाना था। मैं जिस परिवार के साथ उनके गांव जा रहा था, उस परिवार में आठ सदस्य थे। उन्हें यहां से लगभग 28 किलोमीटर दूर रतनपुर मुंडा गांव जाना था।

एक और दिलचस्प बात जो ऐसे सेंटरों में दिख रही थी। वह थी, प्रवासियों की स्क्रीनिंग। प्रवासियों का केवल तापमान मापा जा रहा था। मेरा भी तापमान जांचा गया तो 98 डिग्री निकला। क्या केवल तापमान सही होने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि मैं कोरोना नेगेटिव हूं, जब मैंने यह सवाल पूछा तो मुझे कहा गया कि हमें जितना ऊपर से कहा गया है, हम उतना ही कर रहे हैं।

खैर, इसके बाद हम लोग गांव रतनपुर मुंडा की ओर बढ़ गए। वहां हम रात लगभग 12  बजे पहुंचे। जैसे ही हम एक घर के आगे पहुंचे। साथ चल रहे बच्चे जोर-जोर से उछलने लगे। उनके चेहरों की खुशी में उनकी दिन भर की थकान कहीं ढक गई। मैंने अंदाजा लगा लिया कि यही उनका घर है। अंदर से एक बुजुर्गवार बाहर निकले और बच्चों से लिपट गए। उन चेहरों की खुशी बयां नहीं की जा सकती। बुजुर्ग ने बताया कि वे पिछले दिनों से परेशान थे कि पता नहीं उनके बच्चे कैसे लौटेंगे, लेकिन आखिरकार वे आ गए।  

हम में से एक महिला के पास एक घर की चाबी थी, जैसे ही महिला ने ताला खोला तो वहां खड़े लोग दिन भर की थकान भूलकर लगभग उछलने लगे। गांव में बिजली नहीं थी, लेकिन उन लोगों को अखर नहीं था। शायद उन्हें इन सब की आदत थी। अंदर डिबरी जलाई गई और थकान के मारे लोगों ने सोना बेहतर समझा।

मैं भी वहीं एक चारपाई में सो गया। सुबह उठ कर मैंने गांव का हाल जानने की सोची। यहां मुझे दो भाई मिले। एक भाई सरजू प्रसाद के घर में शौचालय नहीं है। उन्हें स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय बनाने के लिए 12, हजार रुपए की मदद भी नहीं मिले और ना ही प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ मिला। सरजू के पास आय का कोई साधन भी नहीं है। दूसरे भाई ने बताया कि उसके पास मनरेगा कार्ड है, लेकिन उन्हें कोई काम नहीं मिला। प्रधान ने उन्हें काम नहीं दिया।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा को लेकर बहुत बड़ी-बड़ी बातें की जाती है, लेकिन इस गांव में मनरेगा की कई परतें खुलती चली गई। सोनू कुमार गांव के पास ही ट्रक मैकेनिक का काम करता है, लेकिन लॉकडाउन की वजह से काम बंद पड़ा है। आंत में सूजन है, लेकिन इलाज के लि पैसा नहीं है। प्रधान से मनरेगा का कार्ड मांगा है, लेकिन अभी तक नहीं मिला। वहीं, कुछ दूरी पर मनरेगा का काम चल रहा था, जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि आठ-दस लोग वहां काम कर रहे थे। इनमें से सात लोगों यानी 70 फीसदी के पास अपना कार्ड नहीं था और वे दूसरे के कार्ड पर काम कर रहे थे। और वे उस कार्ड पर ही काम कर रहे थे।

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