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किसान आंदोलन अराजनैतिक नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए, यह लोकतांत्रिक नहीं है

-द प्रिंट,

संयुक्त किसान मोर्चा ने अगामी विधानसभा चुनावों में हस्तक्षेप का फैसला किया है और इस फैसले से एक पुरानी बहस फिर से जोर पकड़ सकती हैः बहस ये कि क्या किसान-आंदोलन को राजनीति से परहेज करना चाहिए. आपको याद होगा, प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवी कहकर हाल में तंज कसा था. आंदोलन तो हो लेकिन अराजनीतिक हो, ये मांग भी तंज कसती इसी सोच की लीक पर है और इस बात का पता देती है कि तेज गिरावट का शिकार हमारा लोकतंत्र किस हद तक धराशायी हो चुका है.

याद रहे कि संयुक्त किसान-मोर्चा किसी पार्टी या उम्मीदवार की तरफदारी में चुनाव-प्रचार नहीं करने जा रहा. हमने बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी के मतदाताओं से अपील करने का फैसला लिया है कि वे चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सबक सिखायें क्योंकि बीजेपी ने किसान-विरोधी कानून बनाये हैं, ये पार्टी आंदोलनों पर बेरहमी से हमलावर हो रही है, आंदोलनों को कुचलने और उन्हें आपराधिक ठहराने के लिए राजकीय मशीनरी का इस्तेमाल कर रही है और इन सारी बातों के साथ-साथ एक बड़ी बात यह भी है कि इस पार्टी का अहंकार सिर चढ़कर बोल रहा है. अब मतदाताओं को तय करना है कि वे बीजेपी को इन बातों के लिए कैसे दंड देते हैं. संयुक्त किसान मोर्चा उनसे ये नहीं कहने जा रहा कि वोट किस पार्टी या उम्मीदवार को डालना है.

राजनीति-विरोध की राजनीति
एक अलोकतांत्रिक मांग जब-तब सिर उठाते रहती है, कहा जाता है: किसान-आंदोलन को अराजनीतिक होना चाहिए. मजा ये कि ऐसी मांग करने वाले खुद ही राजनीति करते हैं, अक्सर तो वे सत्ताधारी पार्टी के नेता होते हैं ! या फिर, ऐसी मांग करने वाले मीडियाकर्मी होते हैं. मुख्यधारा के मीडियाकर्मियों की निष्ठा किस पार्टी के साथ है, ये बात अब किसी से छिपी तो नहीं है. हमारी लोकतांत्रिक राजनीति इस दर्जे तक गिर चुकी है कि अब राजनेता, राजनीति को गंदा बताकर भी सियासी बढ़त बना सकते हैं. राजनीति जवाबदेह और पारदर्शी हो, उसमें नैतिकता और सच्चाई रहे— यह कठिन मांग है और हमलोगों ने राजनीति के आगे ऐसी मांग रखना बंद कर दिया है. हम सबने आसान रास्ता चुन लिया है, मान लिया है कि राजनीति स्वार्थ , छल-कपट, क्रूरता और तंगनजरी का खेल है. जाहिर है, फिर राजनीति से पिण्ड छुड़ाने का जी चाहेगा. इसी कारण अब हर दूसरी-तीसरी बात पर हर जगह लोग कहते मिलते हैं कि, “ प्लीज, राजनीति मत कीजिए ”.

यह मांग किसान-आंदोलन के भीतर भी सिर उठाते रहती है. भारत में किसान आंदोलनों की पहला उभार अपने मिजाज में खूब ही राजनीतिक था. चंपारण और बारदोली के ऐतिहासिक सत्याग्रह हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के अभिन्न अंग थे. तेभागा आंदोलन और किसान-सभा के चलाये अन्य आंदोलन वामपंथ की उपनिवेश-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी राजनीति का हिस्सा थे. देश की आजादी के बाद चले नक्सलबाड़ी आंदोलन के बारे में भी यही बात कही जा सकती है. किसानों का आंदोलन अराजनीतिक हो, इस मांग ने 1980 तथा 1990 के दशक में सिर उठाया क्योंकि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने चाहे वह कांग्रेस हो या फिर विपक्षी दल – सबने किसानों से मुंह मोड़ लिया था. राजनीति को शक्ल देने में नाकामी ने ही एक हारी हुई मानसिकता को जन्म दिया और आंदोलन को अराजनीतिक रखने की मांग उठी. यह दौर लंबा नहीं चला. प्रोफेसर एम.डी नन्जुंदास्वामी तथा शरद जोशी सरीखे कद्दावर किसान-नेताओं ने जल्दी ही भांप लिया कि उनके पास अपनी पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है.

फिर भी, राजनीति-विरोध की भाषा चलती रही. आपको ऐसे किसान युनियन मिल जायेंगे जो अपने को अराजनीतिक कहते हैं. जब आरोप लगते हैं कि (और ऐसे आरोप से बचा नहीं जा सकता) कि फलां संगठन तो चुनाव में इस या उस पार्टी की तरफदारी कर रहा है तो संगठन से छिटका धड़ा कहता है, देखिए, हम हैं असली अराजनीतिक संगठन ! किसानों की हर सभा में एक ना एक कोने से आवाज उठती है कि राजनीति को परे रखा जाये. लेकिन राजनीति को परे करके चलने की इस मांग का जमीनी सच्चाइयों से कोई वास्ता नहीं है. ज्यादातर बड़े राजनीतिक संगठन औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर राजनीतिक दलों से जुड़े हैं.

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