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कोविड-19 : 70 रुपए की दवा मिल रही 40 हजार में, मजबूरों को लूट रहीं सरकार और फार्मा कंपनी?

-कारवां, 

जिस तेजी के साथ कोरोनावायरस महामारी देश के कोने-कोने फैलती जा रही है उसे देखते हुए कह सकते हैं कि अगले कुछ हफ्तों में भारत को गंभीर स्थिति का सामना करना पड़ सकता है. अप्रैल और मई में नरेन्द्र मोदी सरकार की परीक्षण पर प्रतिबंधित की नीति ने महामारी को बढ़ा दिया है और जुलाई आते-आते देश के अस्पतालों को इसका सबसे बुरा प्रकोप झेलना पड़ रहा है.

जून में कोरोनोवायरस के सभी रोगियों को धीमे-धीमे एक भयानक अहसास हुआ कि भारत सरकार के पास बीमारी के इलाज में इस्तेमाल की जा रहीं कुछेक भरोसेमंद प्रायोगिक दवाओं में से एक मानी जाने वाली रेमेडिसविर की एक शीशी भी नहीं है. अमेरिकी फार्मास्युटिकल दिग्गज गिलीड साइंसेज द्वारा पेटेंट की गई यह दवा पहली बार जनवरी में संभावित उपचार के रूप में तब सामने आई थी जब इसने चीन में कोविड-19 रोगियों पर एंटी-वायरल काम किया था. मई तक न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन ने एक अध्ययन प्रकाशित किया जिसमें कहा गया था कि रेमेडिसविर ने बीमारी की अवधि को चार दिनों तक कम कर दिया है. लेकिन भारत में सरकार दवा की मांग का अनुमान लगाने और भंडारण करने में विफल रही.

1 मई को संयुक्त राज्य अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने "आपातकालीन उपयोग" के लिए रेमेडिसविर को मंजूरी दी और गिल्ड साइंसेज, जिसकी स्टॉकपाइल में 1.5 मिलियन खुराक थी, ने अमेरिका को इसका अधिकांश हिस्सा दे दिया. यह सब त​ब जब अन्य देश इस दवा के मारामारी करने लगे थे.

मैंने एक ऐसे भारतीय मरीज को जानती हूं जिसे एक अस्पताल ने रेमेडिसविर दवा लिख थी. रोगी का स्वास्थ्य बिगड़ने पर परिवार ने यहां-वहां, जहां-तहां इस दवा का पता लगाया लेकिन वह नहीं मिली. परिवार की यह कहानी उन भारतीय मरीजों की जद्दोजहद को दर्शाती है जिन्हें डॉक्टरों ने रेमेडिसविर दवा लिखी है.

एक्टिविस्ट और रोगियों द्वारा उठाई गई चिंताओं के जवाब में गिलीड साइंसेज ने 12 मई को घोषणा की कि उसने उन भारतीय निर्माताओं के साथ समझौता किया था जो दवा के सामान्य संस्करण का उत्पादन और विपणन कर सकती हैं. ये भारतीय कंपनियां हैं सिप्ला, हेटेरो लैब्स, जाइडस कैडिला हेल्थकेयर, डॉ रेड्डीज लैबोरेट्रीज, जुबलींट लाइफसाइंस और माइलान हैं.

इसके बाद 1 जून को ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने देश में आपातकालीन उपयोग के लिए दवा को मंजूरी दी. 13 जून को स्वास्थ्य मंत्रालय रेमेडिसविर के उपयोग के लिए दिशानिर्देश जारी किए जिसके तहत इस दवा का उपयोग मामूली रूप से बीमार रोगियों के इलाज के लिए हो सकता है. 20 जून तक केवल दो लाइसेंसधारियों- सिप्ला और हेटेरो लैब्स- ने डीसीजीआई से विपणन अनुमोदन प्राप्त किया था. साथ ही डॉक्टर मरीजों को रेमेडिसविर का इंजेक्शन लिख रहे थे और उसे हासिल करने के लिए परिवारों को या तो बांग्लादेश जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था या इसे ग्रे-मार्केट (चोर बाजार) से मंगवा रहे थे.

थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क की कानूनी शोधकर्ता प्रतिभा शिवसुब्रमण्यम, जो सस्ती दवाओं की समर्थक हैं, ने मुझे बताया कि दवा की कमी ने खासकर दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में अवैध बाजारी को बढ़ावा दिया है. "मैंने सुना है कि रेमेडिसवीर मई के अंत में ग्रे मार्केट में उपलब्ध हो गया था" उन्होंने कहा. "शुरू में मैंने ध्यान नहीं दिया लेकिन फिर मैंने सुना कि मरीज इसे ले पा रहे थे. फिर  मई के आसपास बांग्लादेश ने इसका उत्पादन शुरू कर दिया. मैं लगातार उस काले बाजार के बारे में सुन रही हूं जहां से परिवार खरीद रहे हैं.”

बांग्लादेश में मई में रेमेडिसविर को पंजीकृत किया गया है और बांग्लादेशी कंपनियों ने अनुमोदन के तुरंत बाद इसे घरेलू रूप से उपलब्ध कराना शुरू कर दिया था. चूंकि भारत में एकमात्र पंजीकृत आपूर्तिकर्ता गिलीड साइंसेज से यह दवा उपलब्ध नहीं थी इसलिए इसे "व्यक्तिगत उपयोग" के लिए बांग्लादेश से आयात किया जा रहा है. इसके लिए परिवारों को भारतीय दवा नियामक से आयात लाइसेंस के लिए आवेदन कर बांग्लादेशी निर्माता से संपर्क करना होता है और फिर मरीज के परिवार या दोस्तों को भारत में दवा मंगवाने की व्यवस्था करनी होती है.

शिवसुब्रमण्यम ने कहा कि जिन चक्करों में परिवार को पड़ना पड़ता है उसे लेकर वह चिंतित हैं. अवैध बाजार में इस दवा की कीमत से उन्हें चालबाजी का अहसास हुआ. "इसके लिए परिवार एक शीशी के 40000 रुपए तक का भुगतान कर रहे थे," उन्होंने मुझे बताया. “यह चरम का पागलपन है. अगर हम विनिर्माण लागत देखें तो शीशी की कीमत लगभग 70 रुपए होनी चाहिए. अगर आप लाभ मार्जिन शामिल करते हैं तो इसकी कीमत 150 रुपए होनी चाहिए. यह एक महामारी है और अस्पतालों, दवा कंपनियों और सरकार सभी परिवारों की कमजोरी का लाभ उठा रहे हैं. यह महामारी से मुनाफाखोरी है.” लागत का अनुमान लिवरपूल विश्वविद्यालय में एक वरिष्ठ रिसर्च फैलो एंड्रयू हिल द्वारा किए गए एक अध्ययन में है जिन्होंने पाया है कि दवा एक डॉलर प्रति शीशी से कम में बनाई जा सकती है.

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