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शंख घोष: हममें से कोई पूर्ण नहीं, सब आंशिक ही हैं…

-द वायर,

‘बंगाल का विवेक आज विदा हो गया.’ लेखक मित्र कुमार राणा ने बिना किसी भावुकता के कहा. शंख घोष के न रहने की खबर सुनकर कुमार को फोन किया था. अभी उनका जाना प्रतीकात्मक ही है.

बंगाल में जिस बदलाव की धमक नहीं, धमकी है, उस समय शंख घोष का उससे दूर चले जाना क्या एक सूचना है?

कवि को उसके समाज का, जनता का अनिर्वाचित विधायक कहा जाता है. उसकी आत्मा भी जिससे समाज कई बार बच निकलना चाहती है क्योंकि वह उसे चैन का जीवन जीने नहीं देता. कुछ उसे पैगंबर मानते हैं और कुछ भविष्यवक्ता.

भविष्य वह देख सकता है इसका कारण है उसका जो सामने है उसके आवरण को चीरकर अंदर झांक पाने का साहस. जो आज बंगाल को लील जाने को खड़ा है और बंगाल उसके सामने साधनविहीन नज़र आ रहा है, वह शंख बाबू को आज से 20 वर्ष पहले ही दिख गया था.

सावधान किया था उन्होंने अपने बंगाल को. लेकिन क्या सिर्फ उसे ही?

‘… एक बहुत बड़ा कीट मानो अपने खोल में रहते हुए खुद को वीभत्स आयतन में बढ़ाता जा रहा है, वह अपना सिर थोड़ा-सा बाहर निकालकर सभी कुछ को निगल लेता है और फिर से अपने खोल में घुस जाता है. और इस तरह चुपके-चुपके वह और बड़ा, और बलशाली तथा कुत्सित होता जा रहा है. अचानक किसी एक दिन लोगों को महसूस होता है कि चारों ओर हरियाली का नामोनिशान नहीं है, सारा अंत: संसार उस कीट ने सोख लिया है और वह सर्वेश्वर हो गया है.’

2002 में शंख घोष ने बंगाल को अपने मिथ्या विश्वास से मुक्त होने को कहा था. यह कीट जो आज बंगाल का, भारत का सर्वेश्वर हो उठा है, जिसके आगे सब इतने हीन, दयनीय दिखलाई दे रहे हैं, वह सिर्फ अपनी आंख उसकी तरफ से मूंद लेने के कारण.

‘अविश्वास का यथार्थ’ नामक अपने निबंध में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पूर्व सदस्य की दुश्चिंता का वर्णन किया था:

‘… कितने दिनों से इस कोलकाता में, लगभग सबकी आंखों के सामने ही बच्चों को एक तरह की हिंसक राष्ट्रीयता के बोध में दीक्षित करने का काम चल रहा है…पार्कों में, खेल के मैदानों में किस तरह ‘भारतीय’ और ‘गैर भारतीय’ खेलों को चिह्नित किया जा रहा है ….ताकि वयस्क होने पर वे यथार्थ रूप में ‘हिंदू-संग्रामी’ बन सकें.’

बंगाल में भद्र लोक हो या वाम मोर्चे का समर्थक, वे जिस निश्चिंतता के साथ गुजरात और हिंदी भाषी प्रदेशों का उपहास करते थे और यह बताते थे कि इस हिंसक राष्ट्रवाद से बंगाल सुरक्षित है, उन्हें कवि ने इसी लेख में कहा,

‘ … तीस वर्षों से भी अधिक समय से …विभिन्न पर्यायों में बांटकर, लगभग सामरिक श्रृंखला में, एक ओर उत्कट आसक्ति और दूसरी ओर उत्कट घृणा के नशे से आछन्न एक वाहिनी तैयार करने का आयोजन कोलकाता शहर में चल रहा है.’

इसे लेकर कोई सतर्क नहीं रह पाया वरना वामपंथी फौरी लाभ के लोभ में अटल बिहारी वाजपेयी से हाथ मिलाकर भारतीय जनता पार्टी को आगे की पंक्ति में खुशी-खुशी न बिठाते!

शंख घोष को कोई भ्रम न था अटल बिहारी को लेकर. आज जो कुछ भी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में किया जा रहा है, उसका आधार अटल बिहारी का यह सूत्र है कि मुसलमानों के साथ तीन प्रकार के व्यवहार का विकल्प है: तिरस्कार, पुरस्कार और परिष्कार. अटल बिहारी की भाजपा के अनुसार वह उनका परिष्कार करना चाहती है. अगर वे इससे इनकार करें तो तिरस्कृत होने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा.

तो वह कीट उस समय भले ही अपने खोल में छिपा हो, कवि को दिख रहा था. आज वह वृहदाकार हो उठा है और हम उसके आगे स्तंभित हैं, अचंभित हैं तो मात्र इस कारण कि हमने कवि के स्वर की उपेक्षा की थी.

इस लेख की चर्चा कुमार से कर रहा था कि उन्होंने एक लघु निबंध की याद दिलाई. ‘प्रताप अंधता’ नामक वक्तव्य उस समय कवि ने दिया था जब वाम मोर्चे का मध्याह्न सूर्य तप रहा था. सार्वजनिक रूप से उन्होंने कहा था:

‘प्रताप मत्तता या प्रताप अंधता किसी भी सरकार के लिए सर्वनाशकारी है… मनुष्य के सामान्य क्षोभ और प्रतिवाद के प्रकाश को ही शत्रुता मान लिया जाता है. जाने-अनजाने हमें हिंस्र समाज विरोधी झुंड के सामने फेंक दिया गया है.’

अभी 2011 की कोई दूर दूर तक कल्पना नहीं कर सकता था. कवि यदि कवि है तो वह किसी भी सत्ता से सीमित तो नहीं.

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