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क्या तीसरी लहर से पहले खुल पाएंगे ग्रामीण PHC और CHC में लटके ताले?

-जनपथ,

कोरोना की दूसरी लहर का सामना करने के बाद जिंदा बचा समाज खुद अपनी पीठ थपथपा रहा है। समाज और यूं कहें कि व्यक्तिगत तौर पर सुकून इस बात का है कि इस बार बच गये लेकिन भीतर खौफ ये कि अगर अगली बारी हमारी हुई तो क्या होगा? खौफ इस बात का है कि जिस सरकार को वोट देकर तख्त पर बिठाया है वो तो राजनीति में व्यस्त है। सरकार को अब भी यकीन है कि पिछली बार की तरह इस बार भी जनता अपनों को खोने का ग़म भूल कर 5 किलो मुफ्त अनाज चंद  महीनों के लिए पाकर अस्पताल और ऑक्सीजन की मांग करना छोड़ देगी। मध्यम वर्गों के लिए ड्राइव थ्रू वैक्सि‍नेशन कैम्प लगवाकर इन्हें फिर एक बार उसके खास होने का एहसास कराने पर सरकार जुटी है। इसका असर ये हुआ है कि अब तो अस्पताल बनाने की मांग, डॉक्टरों, नर्सों की उपलब्धता और नियुक्ति की मांग भी ढीली पड़ने लगी है।

शहरों में तो लोगों के पास भागने के लिए एक से दूसरा अस्पताल था, लेकिन गांव में तो वो विकल्प भी नहीं था। डॉक्टरों और दवाओं की अनुपलब्धता  ने कोरोना की दूसरी लहर में सबसे ज्यादा गांव ही खाली किये हैं। नतीजा आपने बनारस, गाजीपुर, कानपुर, बक्सर के गंगा घाटों के नज़ारों में देखा ही है।  2019 में सरकार द्वारा जारी की गयी नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल रिपोर्ट के अनुसार जहां शहरी इलाक़ों में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर सरकारी अस्पताल में 1,190 बेड की सुविधा है, वहीं ग्रामीण इलाक़ों में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर सरकारी अस्पताल में 318 बेड की सुविधा है। यह अंतर तीन गुना क्यों है सरकार के पास कोई खास जवाब जरूर होगा। चौंकाने वाली बात यह कि अधिकतर ग्रामीण इलाकों के अधिकांश प्रखंड प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उपस्वास्थ्य केन्द्रों पर आज भी ताले लगे हैं। 

बंद हैं सेहत के दरवाजे

गांवों के अधिकांश स्वास्थ्य केंद्रों पर ताले लटके हैं

रिपोर्ट के अनुसार देश में एक पंचायत में औसतन चार गांव हैं और हर गांव की आबादी तकरीबन 5729 है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में तकरीबन 4-6 बेड होते हैं और एक मेडिकल ऑफिसर जबकि 14 पैरामेडिकल स्टाफ। वहीं सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की बात करें तो यहां 30 बेड होते हैं, जहां आइसीयू की सुविधा उपलब्ध होती है। इसके दायरे में चार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आते हैं। हर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अंतर्गत 128 गांव आते हैं, जिनकी औसत आबादी 170000 होती है। कोरोना के इलाज के लिए पीएचसी को सबसे पहली मदद मुहैया कराने का केंद्र बनाया गया,  लेकिन इन पर बहुत ही अधिक आबादी का दबाव है। ऐसे ही स्वास्थ्य केन्द्र के बारे में मोबाइलवाणी पर एक श्रोता ने बताया।

छिंदवाड़ा जिला से योग�
��श गौतम 
कहते हैं कि सरकार ने अमरवाड़ा के सिविल अस्पताल में कोविड का इलाज करवाने वालों के लिए 100 बिस्तरों का अलग वार्ड तैयार करवाया, लेकिन यहां न तो नर्सिंग स्टाफ की नियुक्ति हुई न ही डॉक्टर अपॉइंट हुए। जो भी कोविड मरीज यहां पहुंचे उन्हें ठीक से इलाज ही नहीं मिल पाया। ज्यादातर मरीजों को होम आइसोलेट करने की सलाह दी गयी। इनमें ऐसे मरीज भी थे जिन्हें ऑक्सीजन की बहुत ज्यादा जरूरत थी, लेकिन अस्पताल में उनकी देखरेख कौन करता इसलिए मरीजों को भर्ती ही नहीं किया गया। स्थानीय विधायक कमलेश शाह ने पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से इस बारे में शिकायत की, तो यह पूरी तरह से राजीनतिक मसला बन गया। कुछ दिन आरोप प्रत्यारोप चले और फिर मामला शांत हो गया लेकिन अस्पताल में मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टर तब भी नहीं पहुंचे।

अगर आप सोच रहे हैं कि सरकार इन स्वास्थ्य केन्द्रों पर जान-बूझ कर खर्च नहीं कर रही तो ये बिल्कुल सही है। केंद्र सरकार देश में स्वास्थ्य सेक्टर पर जीडीपी का सिर्फ 0.3 फीसदी ही निवेश करती है। वहीं राज्य के बजट में भी जीडीपी का सिर्फ 4 फीसदी ही स्वास्थ्य सेक्टर पर खर्च किया जाता है। केंद्र सरकार मानती है कि स्वास्थ्‍य राज्यों का विषय है इसलिए वो ज्यादा पैसे क्यों खर्च करे, दूसरी तरफ राज्य सरकारों को आप कहते हुए सुनेंगे कि उनके पास धन की किल्लत है इसलिए स्वास्थ्य व्यवस्थाएं पूरी नहीं हो पा रहीं। तीसरा नजरिया यह भी है कि अगर सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टर, नर्स, दवा और बेड के साथ अच्छी सेवाएं मिलने लगेंगी तो स्थानीय और राज्यस्तरीय नि‍जी अस्पतालों का क्या होगा।

स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र पर सरकारी खर्चे की बात करें तो  हमसे बेहतर स्थिति पड़ोसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश की है। चीन में स्वास्थ्य सेक्टर पर जीडीपी का 5 फीसदी, यूके में 10 फीसदी, यूएस में 17 फीसदी खर्च किया जाता है। इकोनॉमिक सर्वे की रिप�
��र्ट
 के अनुसार हेल्थ सेक्टर में निवेश करने के मामले में 189 देशों में भारत 179वें स्थान पर है यानि भारत हैती और सूडान जैसे देशों की श्रेणी में आता है। भारत में 10189 आबादी पर सिर्फ एक सरकारी डॉक्टर है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार प्रति 1000 व्यक्ति  पर एक डॉक्टर होना चाहिए। यूएस की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में छह लाख डॉक्टर और 20 लाख नर्सों की जरूरत है।

कोविडकाल में गांव वालों पर क्या गुजरी है, ये तो बस वे ही जानते हैं। बिहार के समस्तीपुर जिले के गांवों में लोगों का इलाज कर रहे डॉक्टर प्रशांत बताते हैं कि इलाज में सबसे ज्यादा दिक्कत इस बात की आ रही है कि लोगों को दवाएं नहीं मिल रहीं। ऐसा इसलिए भी है कि कोविड के समय में गांव की दवा दुकानों से दवाएं ही गायब हो गयीं और बाद में वही दवाएं ज्यादा दामों पर ब्लैक में खरीदनी पडीं। ऐसे में बहुत से गरीब परिवार हैं, जिनका गांव में इलाज किया लेकिन उन्हें दवाएं ही नहीं मिल रहीं। बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के अलावा दक्षिण भारतीय राज्यों के गांव भी स्वास्थ्य व्यवस्था की गड़बड़ी का खमियाजा भुगत रहे हैं। 

झोलाझाप पर यकीन, सरकार पर नहीं!

गांव के लोग झोलाझाप डॉक्टरों के पास भाग रहे हैं

आइएमए बिहार के राज्य सचिव डॉ. सुनील कुमार ने एक इंटरव्यू में कहा है कि बिहार में सरकारी चिकित्सकों और आबादी का यह अनुपात पूरा होने में 50 वर्ष लगेगा जबकि देश के बाकी राज्यों को भी लगभग इतने ही समय की जरूरत है। बिहार में बेसिक डॉक्टर के करीब 13.5 हजार स्वीकृत पद हैं जबकि 6 या 6.5 हजार ही हैं जो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर हैं। वहीं, मेडिकल कॉलेजों में 4 से 4.5 हजार में महज 1800 चिकित्सक ही हैं। ऐसे में हो ये रहा है कि गांव के लोग झोलाझाप डॉक्टरों के पास भाग रहे हैं। ऐसा नहीं है कि बिहार जैसा राज्य ही सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर ताले लटका रहा है, बल्कि महानगरों के आसपास भी हालात बुरे ही हैं। 

दिल्ली से सटे बहादुरगढ़ से सतरोहन ल�
��ल कश्यप
 कहते हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टर नहीं है, वहां मरीजों को ठीक से इलाज नहीं मिल रहा है। जो लोग गरीब हैं वो शहरों में जाकर इलाज नहीं करवा पा रहे हैं। ऐसे में उनके पास एक ही चारा है झोलाझाप डॉक्टर। गांव के गरीब परिवारों का इलाज तो इन्हीं के भरोसे है। कोरोना के दौरान गांव में जैसे हालात बन रहे हैं, उसके दबाव में कोई इन झोलाझाप डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई भी नहीं कर सकता।

उत्‍तर प्रदेश गाजीपुर से नोमान बतात�
�� हैं
 कि गांव में झोलाझाप डॉक्टरों के पास जाने का एक कारण ये भी है कि शहर के प्राइवेट डॉक्टर गांव वालों से इलाज के बदले मोटी फीस ले रहे हैं। जो लोग शहर जाकर इलाज करवा रहे हैं वो बताते हैं कि डॉक्टर इलाज के बदले ज्यादा फीस तो लेते ही हैं, साथ में शहर जाने का खर्चा और वहां ठहरने-खाने में भी बहुत पैसा बर्बाद हो रहा है। अगर गांवों के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र इस लायक होते कि ग्रामीण वहां इलाज करवा सकें तो उनका भला हो जाता।

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