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संक्रमण काल: महामारी के दौर में डॉक्टरों की भूमिका, सीमाएं और प्रोटोकॉल के कुछ सवाल

-जनपथ,

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 24 मार्च, 2020 को देश के 1.3 अरब लोगों को महज चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन में धकेलेते ह
ए कहा था 
कि “यह धैर्य और अनुशासन बनाए रखने का समय है।..[आप] डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिकल स्टाफ, पैथोलॉजिस्ट के बारे में सोचें जो अस्पतालों में दिन-रात काम कर रहे हैं ताकि प्रत्येक जिंदगी को बचाया जा सके।” मोदी ने विशेष तौर पर आग्रह किया कि आप “उन लोगों की भलाई के लिए सोचें और प्रार्थना करें जो खुद कोरोना वायरस महामारी के जोखिम का सामना करते हुए अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे हैं।”[i] ऐसी ही बातें दुनिया के अधिकांश राष्ट्राध्यक्षों ने कहीं। कोविड के दौरान भारत समेत अनेक देशों में डॉक्टरों पर फूल-मालाएं चढ़ाने का कर्मकांड किया गया।

कोविड की कथित ‘पहली लहर’ के दौरान बार-बार कहा गया कि बड़ी संख्या में चिकित्सक भी कोविड से मर रहे हैं, इसलिए निश्चित रूप से यह ऐसा जानलेवा संक्रामक रोग है, जिससे बचने के लिए उठाया गया कोई भी क़दम उचित है, चाहे वह कितना ही अमानवीय ही क्यों न हो। चिकित्सकों व अन्य बड़े लोगों के संक्रमित होने को महामारी की भयावहता और लॉकडाउन की अनिवार्यता के अकाट्य प्रमाण की तरह प्रचारित किया गया।

चिकित्सक भी स्वयं को कोविड-योद्धा, युयुत्सु वीर के रूप से प्रस्तुत करने में पीछे नहीं थे। सोशल-मीडिया पर इससे संबंधित होने वाली बहसों में चिकित्सक, चाहे वे दांत के हों, या आंत के, इस प्रकार प्रकट होते मानो वे चिकित्साशास्त्र ही नहीं, बल्कि समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र- सब के ज्ञाता हों। वे किसी भी कोण से उठने वाले सवालों का उत्तर देते और जो कोई विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ), अमेरिका के सेंटर ऑफ़ डिज़ीज़ कंट्रोल (सीडीसी), भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की “टूल किट” से अलग सवाल उठाता, उसे वे विज्ञान-द्रोही कहते और सवाल उठाने के लिए उसकी काबिलियत को कठघरे में खड़ा करते। वे उन सब को खारिज करते, जिनकी ट्रेनिंग किसी मेडिकल-कॉलेज में नहीं हुई हो। दूसरी ओर, वे बिल गेट्स जैसे टेक्नोक्रेट-व्यवसायी की हर बात का समर्थन करते, गोया गेट्स ‘सुपर-डाक्टर’ हों।

आज जब यह साबित हो चुका है कि लॉकडाउन, जिसे गेट्स ने एक प्रामाणिक विज्ञान बताया था तथा देशों को लॉक करवाने के लिए लॉबिंग की थी, जैसा कदम अतिरेकपूर्ण था, जिसने जितनी जानें बचाईं उसस
कई गुणा अधिक जानें ली
[ii]; तो प्रश्न उठना लाज़मी है कि क्या हमारे-आपके बीच के वे डॉक्टर झूठ बोल रहे थे? क्या वे किसी दबाव या प्रलोभन का शिकार थे? क्या हमारी मध्यमवर्गीय जमात के ये सदस्य भी किसी वैश्विक साजिश में शामिल थे?

इनमें से अधिकांश प्रश्नों का उत्तर है-  “नहीं”। लेकिन कोविड-काल में चिकित्सकों की भूमिका को समझने में उत्तर कोई ख़ास मदद नहीं कर सकता। हमें इन वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का उत्तर तलाशने की जगह उन विषयनिष्ठ प्रक्रियाओं को देखना होगा, जो मौजूदा चिकित्सकों को निर्मित कर रही हैं।

विशुद्ध डॉक्टर एक अशुद्ध अवधारणा है

ग्रीक चिकित्सक, सर्जन और दार्शनिक गैलन के सबसे चर्चित परिनिबंध का शीर्षक है – ‘श्रेष्ठ चिकित्सक एक दार्शनिक भी होता है’

डॉक्टरों पर आम जनता के विश्वास का इतिहास, ज्ञान-विज्ञान के निर्माण का इतिहास है, जो कम से कम ढाई हज़ार साल या उससे भी अधिक पुराना है। इस विश्वास के निर्माण की प्रक्रिया को ईसा से लगभग 450 साल पहले यूनान में अरस्तू (469-399 ईसापूर्व) के उद्भव के साथ देखा जा सकता है। जीव विज्ञान के जनक के तौर पर मशहूर अरस्तू चिकित्सक के साथ-साथ दार्शनिक, राजनीतिशास्त्री,  तर्कशास्त्री, नीतिशास्त्री और कला-मर्मज्ञ भी थे। लंबे समय तक एक चिकित्सक से इन गुणों की अपेक्षा की जाती रही। मसलन, उसे जीव-विज्ञान के अध्येता के साथ-साथ एक दार्शनिक भी होना चाहिए ताकि वह जीवन के अर्थ और मृत्यु की अपरिहार्यता को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सके। उससे तर्क और राजनीति की समझ तथा कलात्मक संवेदनाओं की भी अपेक्षा की जाती है ताकि वह शारीरिक-समस्याओं को उनकी संपूर्णता में देख सके।

कई महान चिकित्सक लेखक और चिंतक रहे हैं। मसलन,  हिप्पोक्रेट्स, (460-375 ईसापूर्व) गैलेन (130 – 210 ई.), मैमोनिदेस (1138–1204 ई.), पेरासेलसस (1493-1541 ई.) और आंद्रेयेस विसेलियस (1514-1564 ई.) आदि ने अपने चिकित्सकीय अनुभवों, प्रविधियों को अपने साहित्य में करीने से दर्ज किया है। ग्रीक चिकित्सक, सर्जन और दार्शनिक गैलन के तो सबसे चर्चित परिनिबंध का शीर्षक ही है – ‘श्रेष्ठ चिकित्सक एक दार्शनिक भी होता है’ (The Best Doctor Is Also a Philosopher), लेकिन बाद की सदियों में ऐसा नहीं रह गया। जैसा कि वाल्टेयर (1694-1778) ने 18वीं शताब्दी में ही लक्ष्य किया था कि “डॉक्टर जिन दवाओं का नुस्खा लिखते हैं, उनके बारे में वे थोड़ा सा ही जानते हैं। जिन बीमारियों को ठीक करने के लिए नुस्खा लिखते हैं, उनके बारे में भी वे बहुत कम जानते हैं तथा मनुष्य जाति को तो वे कुछ भी नहीं जानते हैं।[iii]

20वीं और 21वीं सदी की व्यवस्था ने जिन चिकित्सकों को रचा है, वे मनुष्य को टुकड़ों में देखते हैं, हालांकि आज भी संवेदनशील और मानव-जीवन में गहन दार्शनिक रूचि रखने वाले कुछ चिकित्सक हैं, लेकिन चिकित्सा का ज्ञान प्रदान करने वाले हमारे संस्थान (मेडिकल कॉलेज) जिन चिकित्सकों का उत्पादन कर रहे हैं, वे एक संपूर्ण ‘स्वास्थ्यकर्मी’ के रूप में विकसित नहीं होते हैं, बल्कि महज़ दवाओं एवं शल्य-क्रियाओं (सर्जरी) आदि के जानकार होते हैं; वह भी बहुत सीमित क्षेत्र में। आज अच्छा चिकित्सक होने का अर्थ मानव-शरीर के महज़ किसी एक हिस्से का विशेषज्ञ होना है।

आज किसी चिकित्सक से एक संपूर्ण चिकित्सक होने की भी नहीं, बल्कि आंख आँख, नाक, दांत दाँत, हड्डी, त्वचा, हृदय, गुर्दा, प्रसूति, नींद के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शाखाओं में से महज़ किसी एक शाखा से संबंधित तकनीक और दवाइयों की जानकारी रखने की उम्मीद की जाती है। उपरोक्त पतन के बावजूद चिकित्सक समाज ही नहीं बल्कि शासन-व्यवस्था का अहम हिस्सा रहे हैं।

भारत समेत दुनिया के सभी देशों के क़ानून के अनुसार एक ज़ेरे-इलाज व्यक्ति के बारे में चिकित्सक के मत को अकाट्य माने जाने का प्रावधान है। चाहे वह दफ़्तर से छुट्टी लेने का मामला हो, किसी आरोपी के न्यायालय में अनुपस्थित रहने का या किसी की मृत्यु के कारणों के निर्धारण का। रोग और उसके इलाज का निर्धारण भी चिकित्सक की ही ज़िम्मेदारी रही है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर चिकित्सकों के ये अधिकार छिनते गये। कोविड के दौरान तो उनके पास इससे संबंधित कोई वास्तविक अधिकार ही नहीं रहा। कोविड के दौर में उनकी इस संपूर्ण-दृष्टि के ग़ायब होने का ख़ामियाज़ा दुनिया ने उठाया और लाभ उन लोगों ने उठाया जो दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना चाहते हैं।

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