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सत्यजीत रे की तीन शहरी फ़िल्में और संकट-ग्रस्त नैतिकताओं के संसार

-न्यूजलॉन्ड्री,

सीमाबद्ध (1971) साल 1970 के अक्तूबर-नवम्बर में कलकत्ता (आज का कोलकाता) में 17 दिनों के फ़ासले से दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं. पहली थी सत्यजीत रे की प्रतिद्वंद्वी और दूसरी थी मृणाल सेन की इंटरव्यू. संयोगवश यह दोनों ही फ़िल्में एक ऐसी संज्ञा का सूत्रपात कर रही थीं जिसे सत्यजीत रे और मृणाल सेन,दोनों के सिनेमा के संदर्भ में ‘कलकत्ता ट्राइलोजी’ (Calcutta Trilogy) कहा जाता है.

इस श्रृंखला में दोनों निर्देशकों की तीन-तीन फ़िल्में सम्मिलित थीं. प्रतिद्वंद्वी (1970) के अतिरिक्त सत्यजीत रे की दो फ़िल्में थीं- सीमाबद्ध (1971) और जन-अरण्य (1976). वहीं इंटरव्यू के अतिरिक्त इस श्रृंखला में मृणाल सेन की दो अन्य फ़िल्में थीं कलकत्ता-71 और पदातिक (1973). फ़िल्म निर्माण के पर्याप्त शैलीगत और वैचारिक (विशेष रूप से फ़िल्मों में राजनीतिक अंतरवस्तु की मौजूदगी और उसकी अभिव्यंजनात्मक प्रस्तुति के स्तर पर, जो रे की तुलना में मृणाल सेन के सिनेमा में अधिक मुखर और उद्वेलित प्रतीकों का सहारा लेती थी) अंतर के बाबजूद दोनों निर्देशकों के इस काल-खंड के सिनेमा में एक प्रारूपिक समानता थी. दोनों का सिनेमा शहर के अंतर्ध्वंसी चरित्र के साथ-साथ भारतीय मध्यवर्गीय किरदार के संघर्ष, आकांक्षाओं, अस्तित्व की समझौतापरस्ती और संकटग्रस्त नैतिकताओं की डायस्टोपियन प्रस्तुति करता था.

ख़ास बात यह थी कि इस सिनेमा में संकट के यह स्रोत आंतरिक न होकर जीवन के ठीक बाहर दर्शाए गए थे. उन्हें किसी भी लैंडस्केप में बनी हुई मध्यमवर्गीय रिहाइश से बराबर महसूस किया जा सकता था फिर वो चाहे ऊंचे माले के एलीवेटरयुक्त अपार्टमेंट हों [जैसा ‘सीमाबद्ध’ के नायक का निवास है] अथवा साधारण कल्पनाओं की भूतल गृहस्थियां [जैसे ‘प्रतिद्वंद्वी’ और ‘जन-अरण्य’ के नायकों के घर हैं]. 70 और उसके निकट का दशक भारत की राजनीति में मनो-भंग से पैदा हुईं मायूसियों का दौर कहा जाता है. इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं था कि सत्यजीत रे, जिनके ऊपर तब तक अपने समय के यथार्थबोध से कटे रहकर सिनेमा निर्माण करने के आक्षेप लगने लगे थे, कैमरे को आक्रोश, नैराश्य, असुरक्षा और नैतिक संशयों से भरे हुए शहरी मध्यवर्गीय जीवन की ओर घुमाते.

इस मध्यवर्गीय जीवन का नायक कहीं कोहनी तक क़मीज़ के स्लीव्ज़ ऊपर चढ़ाए हुए, बसों में धक्के खाता हुआ, हाथों में कॉलेज की डिग्रियों का गोल बंडल बनाकर सड़क की ज़ेब्रा क्रॉसिंग पार करता हुआ, तनाव की मनोदशा में सिगरेट की डिब्बी पर निर्भर, रोज़गार के लिए कार्यालय दर कार्यालय भटकने वाला युवा (प्रतिद्वंदी का नायक) था तो कहीं रोज़गार पा जाने के बाद पंखे बनाने वाली कम्पनी का कैरियरमुखी मुलाजिम (सीमाबद्ध का नायक) जो अपने प्रमोशन को बचाने के लिए षड्यंत्र रच कर अपनी ही कम्पनी में हिंसक हड़ताल करा देता है. वह अपने आदर्शवादी पिता की उम्मीदों के उलट ग्रैजुएशन में महज़ 40 फ़ीसदी अंकों से उत्तीर्ण होने वाला साधारण और संवेदनशील नौजवान भी था जो अपने चारों ओर फैले हुए ‘जन-अरण्य’ में फंसकर एक ‘मिडिलमैन’ बन जाता है.

अनुकरण करने के लिए, उसके एक ओर सरकारी बजट की योजनाएं थीं तो दूसरी तरफ़ स्वच्छंद हिप्पीज. इन फ़िल्मों के फ़्रेम (सीमाबद्ध को छोड़कर, क्योंकि उसके मध्यवर्गीय नायक का परिवहन निजीकार है) उन भिंची हुई मुट्ठियों से भरे हैं जो अपना दिनारम्भ सार्वजनिक परिवहन की बस के मध्य में जड़ी हुई रॉड या उस की खिड़की पर कसे हुए हत्थे को पकड़कर करती हैं.

‘प्रतिद्वंदी’ और ‘जन-अरण्य’ ऐसे काफ़्कीय वातावरण की रचना करती हैं जहां नायक स्वयं के ‘सफल’ होने की शर्तों की डोर मेज के दूसरी ओर बैठी सत्ताओं के हाथों में पाता है किंतु यह विडंबना इतने पर ही ख़त्म नहीं होती क्योंकि मेज के दूसरी ओर बैठे सत्ता-केन्द्र चयन की वस्तुनिष्ठता की कोई गारंटी नहीं देते. यह सिनेमा आधुनिकता के ऐसे कोलाज को गढ़ता है जहां तमाम प्रतिभा और संवेदना के बावजूद यह तय करना आप के हाथ में नहीं रहता कि आप सफलता के संवर्ग में चुने लिए जाएं. लोगों के सैलाब अर्थात ‘जन- अरण्य’ के बीच में इस सफलता को पाने में यदि आप सोमनाथ की तरह ‘मिडिलमैन’ बन भी जाएं तब भी टेण्डर और सप्लाई-ऑर्डर मितिर बाबू जैसे ‘पब्लिक रिलेशन ऑफ़िसर’ की मदद के बिना हासिल करना असंभव है और इन्हें हासिल करने की क़ीमतें इतनी बड़ी हैं कि उसके लिए आपको अपने कल्पित नैतिक संसार को अलविदा कह कर घर लौटना पड़ सकता है (जैसे जन-अरण्य का नायक सोमनाथ लौटता है).

इस पूरी प्रक्रिया में महानगर में भटकना इन नायकों की नियति बन जाता है किंतु यह भटकन दार्शनिक यायावरी नहीं है और न ही ये कोई अलक्षित नायक है. सत्यजीत रे के इन तीन शहर-केन्द्री सिनेमाओं और उनके मध्यवर्गीय जीवन के तीनों नायक सिद्धार्थ (प्रतिद्वंदी), सोमनाथ (जन-अरण्य) और श्यामलेंदु (सीमाबद्ध) वस्तुतः हमें एक ऐसी पेचीदा और स्पर्धात्मक आधुनिकता के लिए तैयार कर देते हैं जिसमें प्रतिदिन हमसे हमारा कुछ मूल्यवान हिस्सा, कभी सहमति तो कभी अन्यमनस्कता के बावजूद छिन जाता है.

प्रतिद्वंद्वी (1970)

प्रतिद्वंद्वी की कहानी एक शहरी बेरोज़गार सिद्धार्थ चौधरी (धृतिमान चटर्जी) के आस पास बुनी गयी है जिसे अपने पिता के निधन के बाद मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर ‘चाकरी’ की खोज में लगना पड़ता है. वह बोटनीकल सर्वे ऑफ़ इंडिया में इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है. इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य का सवाल होता है कि तुम्हारे हिसाब से इस दौर की सबसे महत्वपूर्ण घटना कौन सी है? सिद्धार्थ तपाक से उत्तर देता है कि वियतनामी लोगों का संघर्ष, और चांद पर मनुष्य की लैंडिंग का क्या? सिद्धार्थ स्पष्टीकरण देता है की वो भी महत्वपूर्ण है किंतु चंद्रमा पर मनुष्य का उतरना वैज्ञानिक रूप से आशातीत नहीं था. आदमी को कभी न कभी वहां उतरना ही था किंतु जैसा प्रतिरोध वियतनाम के साधारण लोगों ने पेश किया वह ‘अनप्रेडिक्टेबल’ और बेमिसाल है.

बोर्ड मेंबर की घाघ आंखें चश्मे के पीछे से नौजवान को घूरने लगती हैं. चंद्रमा पर लैंडिंग के बदले वियतनाम के लोगों के संघर्ष को वरीयता देने वाले इस जवाब में उसे एक ख़तरनाक नौजवान दिखता है और सिद्धार्थ नौकरी पाने का अवसर गंवा देता है. यह बड़ा दिलचस्प है कि मृणाल सेन की फ़िल्म ‘इंटरव्यू’ और सत्यजीत रे की दोनों फ़िल्मों, प्रतिद्वंद्वी और जन-अरण्य में इंटरव्यू की कल्पना एक भयावह मानसिक एंग्ज़ाइटी है. वह एक बेरोज़गार युवा का दुर्दम तनाव-लोक है. व्हेन, व्हिच, हू, व्हाट के प्रश्नवाचक सर्वनामों से बनने वाले वाक्य नौकरी खोजते परीक्षार्थी की दुनिया के सबसे ख़तरनाक वाक्य हैं.

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