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सहरिया आदिवासी: लॉकडाउन की मार से त्रस्त

इस बार गर्मियों के दिन पूरन के लिए कुछ अलग हैं, इस साल कोई 'फड़' नहीं लगी गांव में. वैसे हर साल इन दिनों में 'फड़' लगती थी और पूरन अपने परिवार सहित तेंदू पत्ता तोड़ने जंगल जाते थे, इस बार कोरोना वायरस की वजह से ऐसा नहीं हुआ.

पूरन शिवपुरी जिले के कुंवरपुर गांव में रहते हैं, वो सहरिया आदिवासी हैं. इन दिनों वो कुंवरपुर की 'सहराना' बस्ती मे लॉकडाउन की वजह से नीरस पड़ी दोपहरी में बीड़ी पीकर दिन निकाल रहे हैं. पूरन को बीड़ी पीने का बड़ा शौक है. वो जो तेंदू पत्ते जंगल से लेकर आते हैं उनमें से कुछ से अपने लिए भी बीड़ी बना लेते हैं. पर इस बार ऐसा नहीं हुआ.

फड़ सहरिया आदिवासियों की कमाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. पूरन कहते हैं, "फड़ लगती थी तो अलग-अलग बेर में अलग-अलग रुपया मिलता था. कई बार 100 पत्तों की गड्डी के 250 रु तक मिल जाते थे और कई बार 80 -90 रुपया तक."

फड़ इन्हीं महीनों में 15-20 दिन के लिए लगती है, जिससे यहां के आदिवासी 2 से 4 हजार रुपये एक सीजन में काम लेते है.

पूरन दो महीने पहले आगरा से लौटे हैं. वो जनवरी के आस पास हर साल वहां चले जाते हैं और मार्च-अप्रैल के महीने में लौट आते हैं. उनके जानने वाला एक ठेकेदार उन्हें वहां आलू बीनने के लिए ले जाते है.

इस तरह के पलायन को मौसमी प्रवास कहते हैं. ऐसे ज्यादातर मजदूर किसी ठेकेदार के साथ ही काम पर जाते हैं. मध्य और दक्षिण भारत की अनुसूचित जाति, जनजातियों के काफी लोग परिवार सहित इस तरह का प्रवास करते हैं. जिसमें उन्हें साल भर खाने-पीने लायक पैसा मिलता है.

लॉकडाउन लगने से एक दिन पहले, उनके ठेकेदार ने पूरन से कहा, "पूरन भाई स्थिति बिगड़ रही है, निकल जाओ यहां से." पूरन तभी वहां से शिवपुरी आ गए. पूरन भाग्यशाली थे, जो घर पहुंच गए, वरना उनके जानने वाले तमाम लोग अभी भी आगरा में फंसे हुए हैं.


कुछ साल पहले पूरन के गांव में आदिवासी रिज़र्व सीट आयी थी तब पूरन ने अपनी 4 बीघा जमीन कौड़ियों के दाम बेच दी. गांव के ही एक व्यक्ति ने 40 हजार में उनसे चार बीघा जमीन खरीद ली थी.

पूरन के हाथ से वो चुनाव भी गया और जमीन भी, और वो रह गए बिना ज़मीन के एक मजदूर.

उनके पास बीपीएल कार्ड है, अर्थात वे गरीबी रेखा के नीचे आते हैं. उन्हें राशन भी मिल गया है. मोदी सरकार ने 26 मार्च को कहा था कि वो दुगुना राशन भेजेगी. कुंवरपुर के सभी आदिवासी लोगों को उनके हिस्से का राशन मिल गया, जिसमें, चावल गेंहू, चीनी इत्यादि थी. पर दाल नहीं थी. मध्यप्रदेश सरकार ने दाल नहीं बांटी, जबकि केंद्र सरकार ने एक किलो दाल भी देने को कहा था.

कुंवरपुर गांव के आदिवासी स्कूली शिक्षा से काफी दूर हैं. ऐसा अनुमान है कि 2 प्रतिशत से भी कम आदिवासी हाईस्कूल पास हैं. इसीलिए शिक्षा का विषय ही पूरन को गुस्सा दिला देता है उन्हें लगता है कि उनके गांव के बच्चे जानबूझ कर नहीं पढ़ते.

2014 में आई एक रिपोर्ट 'यंग माइग्रेंट एट वर्क साइट' जो 7 बड़े शहरों में ऐसे ही मजदूरों का अध्ययन करती है. इसमें 361 अनौपचारिक वर्क साइट का अध्ययन है जो बताती है कि वहां के 39% बच्चे किसी भी तरह की शिक्षा प्रणाली का हिस्सा नहीं हैं. बहुसंख्य मजदूर समन्वित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) से परे हैं. यह एक महत्वपूर्ण मातृत्व स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी योजना है. एक और दुखद बात यह है कि सहरिया आदिवासियों में बाल विवाह प्रचलित है. पूरन का एक और दुख ये है कि लॉकडाउन की वजह से अपनी बेटी का विवाह नहीं कर पा रहे हैं जो कि अभी 18 वर्ष की भी नहीं हैं. (वो समझाने पर समझ गए कि बाल विवाह गलत है).

सहरिया आदिवासियों में कुपोषण की समस्या आम है. हर साल कई नवजात इसकी वजह से मर जाते हैं और वयस्कों में कई की मत्यु टीबी आदि बीमारियों की वजह से हो जाती है.

ऐसी परिस्थिति में कोई काम न होना और अनाज के नाम पर केवल गेँहू और चावल मिलना कितना सार्थक है. क्योंकि जैसा प्रसिद्ध अर्थशात्री ज्यां द्रेज़ अपने लेख जो हाल ही में हिन्दू अखबार में छपा कहते हैं- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत जो कुछ अनाज मिलता है वो बस केवल भूख से कुछ ही अधिक सुरक्षा देता है जबकि पोषण की सुरक्षा जैसी महत्वपूर्ण चीज उन्हें नहीं मिल पाती.

शिवपुरी जिले के कई गांव में पानी की समस्या है. जिससे सहरिया समाज में रोजाना नहीं नहाने के चलन चल पड़ा है. इन आदिवासियों में साफ सफ़ाई का चलन नहीं है. लोग अभी भी बाहर शौच को जाते हैं. हाथ धोने के लिए भी किसी के घर में साबुन नहीं होता. शौच के बाद सब राख या मिट्टी से ही हाथ धोते हैं.

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