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किसान आंदोलन से देश को क्या सबक लेना चाहिए

-न्यूजलॉन्ड्री,

क्या भारत के किसानों को आज पता चला है कि भारतीय झूठ पार्टी का सारा खेल नफ़रत की सौदागरी और झूठ का प्रपंच है, जो इनकी मूल संघी विचारधारा से निकलता है? ऐसा नहीं है, पता तो सबको था, पर आज वे बोलने लगे हैं. तो अब तक क्यों नहीं कह पाए थे? इस बात पर सोचना-समझना ज़रूरी है, क्योंकि किसान अपनी लड़ाई जीतेंगे और भाजपा तब भी रहेगी. दरअसल पिछले चार दशकों में भाजपा और खास कर मोदी-शाह ने मिलकर भारतीय राजनीति में एक अनोखा काम किया है. उन्होंने सियासत का केंद्र-बिंदु धीरे-धीरे धकेल कर ऐसी जगह ला खड़ा किया है, जहां बहुसंख्यकों में से एक बड़े हिस्से के लोगों का नैतिक संतुलन बिगड़ चुका है और उनके अंदर के शैतान इकट्ठे होकर नंगा नाच करने पर उतारू हैं. नवउदारवाद और वैश्वीकरण के साथ जो नया मध्य-वर्ग सामने आया, वह पूरी तरह से भ्रष्ट और खुदगर्ज़ है. आम लोगों ने इस नए वर्ग की बढ़ती माली ताकत को देखा और अपनी हताशा को शैतान के चरणों के सामने बिछा दिया. हर किसी को लगने लगा कि जीना है तो डाकू-लुटेरा बनना पड़ेगा. इस चक्कर में जो कमज़ोर है, वह पिसे तो हमें क्या! सबसे ज्यादा पिसने वाले कमज़ोर मुसलमान, दलित और औरत हैं.

सियासत में झूठ, छल-फरेब. हमेशा ही रहा है. पर इंसानियत में कुछ बदलाव पिछली सदियों में आए हैं, जैसे कुछ तरह की हिंसाओं पर नियंत्रण होता लग रहा था, जिनमें नस्ली, जाति और जेंडर जैसी हिंसाएं हैं. भाजपा की राजनीति ने इस नियंत्रण के बरक्स आदिम और पाशविक प्रवृत्तियों को जगाया. आज किसान आंदोलन में लगातार यह बात सुनाई पड़ रही है कि किसान के हित मजहब और जाति की राजनीति से परे हैं. भाजपा की फिरकापरस्त सियासत पर खूब कहा जा रहा है. ऐसा लगता है कि बड़ी तादाद में लोग समझ गए हैं कि भाजपा संविधान विरोधी है. अगर आज मोदी और शाह हार मान लें और तीन 'काले' कानून वापस ले लें, तो क्या यूपी, हरियाणा और हिन्दी पट्टी के और प्रदेशों में किसानों में सेक्युलर या धर्म-निरपेक्ष समझ बनी रहेगी? क्या वे अगले चुनावों में भाजपा का बहिष्कार करेंगे?

जोगिंदर सिंह उगराहां के नेतृत्व वाले भारतीय किसान यूनियन के गुट ने मानव अधिकार दिवस पर ज़बरन क़ैद किए बुद्धिजीवियों के खिलाफ प्रदर्शन किया, तो मुख्य-धारा के गुटों ने उस पर आपत्ति जताई. क्या यह महज रणनीति की बात थी कि गोदी मीडिया के दुष्प्रचार को रोका जा सके? या कि अभी भी कहीं संवेदनशीलता का अभाव है जो हमें वरवारा राव, स्टैन स्वामी जैसे अस्सी या ज्यादा की उम्र के बुज़ुर्गों की क़ैद पर कहने से रोकता है? बाक़ी भी जो क़ैद हैं वे भी जवान नहीं हैं. गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े सत्तर के हैं, सुधा भारद्वाज साठ के क़रीब हैं. और जो जवान हैं भी, क्या उनको भी बिना किसी ठोस सबूत के मनगढ़ंत इल्ज़ाम लगाकर क़ैद कर दिया जाना ठीक है? ज़ुल्म के खिलाफ बोलने से हमें कौन रोकता है? कहीं यह वही शैतान तो नहीं जिसे मोदी-शाह ने जगाया है?

मोदी-शाह के हिसाब में गड़बड़ कहां हुई? दरअसल इंसान की फितरत ऐसी है कि शैतान और भगवान दोनों एक साथ उसके अंदर विराजमान होते हैं. शैतान का पलड़ा भारी होता है तो कहीं बेचैनी बढ़ती है और षडरिपु के घेरे में फंसा इंसान तड़पता रहता है. सही मौका मिलते ही शैतान पर इंसान हावी हो जाता है. इसीलिए इतिहास के ऐसे पुराने दौर लौट आते हैं, जब हारे हुए लोग फिर उठ खड़े हुए हैं और जालिमों के खिलाफ इंकलाब हुए हैं. मौजूदा किसान आंदोलन आज़ादी और इंसानियत के वापस लौटने का ही क्रम है. इसलिए हालांकि मुख्यधारा के नेतृत्व से सिर्फ कानूनों को हटाने की मांग या साथ में एक दो और मांगे जैसे पराली जलाने पर भारी ज़ुर्माना हटाना आदि ही सुनाई पड़ते हैं, पर आंदोलन में शामिल लोगों की बड़ी तादाद ने भाजपा और मोदी-शाह के झूठ के समंदर में डूबी और शैतानी फितरत को समझ लिया है. लोग किताबें पढ़ रहे हैं, गोदी मीडिया को नकारकर अपना अखबार 'ट्राली टाइम्स' पढ़ रहे हैं. सिंघु और दूसरे बॉर्डर पर बस चुके आंदोलनकारियों के गांवों में पक रही इंकलाबी लहर देशभर में फैल रही है.

मोदी-शाह और संघ के षड़यंत्रकारियों ने आम लोगों के मन में यह बात फैला दी थी कि उनके अलावा देश में कोई मजबूत नेतृत्व बचा नहीं है. पिछले लोकसभा चुनावों में तख्ता पलट होने की जो हल्की सी संभावना दिख रही थी, उसे पैसे और ज़बर के छल-बल से पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया था. सच यह है कि यह ज़रूरी नहीं है कि देश को सुचारु ढंग से चलाने के लिए किसी एक पार्टी का वर्चस्व हो. जिस तरह का बहुराष्ट्री स्वरूप हमारे मुल्क का है, वहां यह वांछनीय भी नहीं हैं. कल्पना करें कि लोकसभा के सभी सदस्य निर्दलीय हों. तो क्या देश कमज़ोर हो जाएगा? ज्यादातर लोग इस सवाल का जवाब हां में देंगे, पर यह सही नहीं है. चुने हुए प्रतिनिधि नए गुट बनाएंगे, प्रशासन संविधन के मुताबिक चलता रहेगा. दरअसल सरकार को प्रशासनिक ढांचा चलाता है, उस पर नियंत्रण रखने और उसे दिशा देने के लिए संसदीय ढांचा है, न्यायपालिका है.

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