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किसानों के आन्दोलन के छः महीने : इस सरकार में अंग्रेजों जितनी शर्म भी नहीं

-द प्रिंट,

केन्द्र सरकार के तीन विवादित कृषि कानूनों को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए कानून बनाने की मांगों को लेकर राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसानों का आन्दोलन छब्बीस मई को छः महीने पुराना हो जायेगा.

सरकार की हर चन्द कोशिश के बावजूद इस दौरान किसान न थकने को तैयार हैं, न झुकने को. बदलते मौसमों के साथ गर्मी, जाड़ा व बरसात और महामारी के अंदेशों को झेलते हुए भी वे प्रदर्शन स्थलों पर जमे हुए हैं और अब उन्होंने अपने आन्दोलन का विस्तार करते हुए उसे गुरिल्ला शक्ल देने का फैसला भी किया है, ताकि सरकार उनके अगले कदम का अन्दाजा न लगा पाये. न ही उससे निपटने की तैयारियां कर पाये.

उनका यह कदम 26 मई को कालादिवस मनाने और काले झंडे फहराने के घोषित कार्यक्रम के अतिरिक्त है, जिसके तहत फिलहाल उनका जब भी और जहां भी बन पड़े, भाजपा नेताओं, सांसदों, विधायकों और मंत्रियों वगैरह को अचानक सामने आकर काले झंडे दिखाने व प्रदर्शन करने का इरादा है. ज्ञातव्य है कि 1920-21 में अवध किसान सभा ने अवध रेंट कंट्रोल ऐक्ट के खिलाफ बाबा रामचन्द्र के नेतृत्व में अवध के गांवों में ऐसे ही आन्दोलनकारी कदम उठाकर गोरी सरकार को घुटनों के बल ला दिया था.

दूसरी ओर केन्द्र सरकार है कि उन्हें सबक सिखाने की जिद में यह तक भूल जा रही है कि आन्दोलनों से उपजे उद्वेलनों को यों ही उनके हाल पर छोड़कर बढ़ने दिया जाये, तो उनसे जुड़ी समस्याएं हल होने के बजाय और उलझ जाती हैं. उसका यह रवैया तब है, जब किसी भी लोकतंत्र में सरकारों को नागरिकों की अभिभावक माना जाता है. अपेक्षा की जाती है कि वे उनके सुख-दुःख में अभिभावक के रूप में ही पेश आयेंगी-सास की तरह नहीं. अपमानित, अवमानित व लांछित करके, साथ ही बल प्रयोग व किलेबन्दी वगैरह की मार्फत इस आन्दोलन को ठिकाने लगाने की कई कोशिशें विफल हो जाने के बावजूद सरकार को लग रहा है कि कानों में तेल डालकर बैठी रहना ही उससे निपटने का सबसे अच्छा विकल्प है.
इसीलिए यह दावा करते हुए कि अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रस्ताव दे चुकी, अब किसान जानें और उनका काम, वह किसानों से लगातार ‘एक फोनकॉल की दूरी’ बनाये हुए है. इस तथ्य की ओर से पीठ किये हुए कि ऐसे आन्दोलन कभी हारते या विफल नहीं होते. खासकर, जब उनके आयाम इतने व्यापक हो गये हों.

वह संभवतः अपने मित्र मीडिया द्वारा लगातार फैलाई जा रही इस धारणा से खुश है कि अंततः किसानों के हौसले पस्त हो जायेंगे. इसलिए प्रतीक्षा कर रही है कि कब ऐसा हो और उसके सिर से बला टले. ‘जब तक कानून वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं’ के किसानों के एलान को भी उसे गंभीरता से लेना गवारा नहीं.

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