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वो सुधा भारद्वाज, जिनके बारे में सरकार नहीं चाहती कि आप ज्यादा जानें

-न्यूजलॉन्ड्री, 

दिसंबर 2019 में छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में एक दूषित जल शोधन संयंत्र में काम करने वाले राजकुमार साहू ने 1000 किलोमीटर की दूरी तय करके पुणे जेल में बंद 59 वर्षीय वकील सुधा भारद्वाज से मुलाकात की. पुलिस द्वारा कोर्ट लाए जाते समय कुछ पलों की भेंट के लिए इतनी लंबी यात्रा का क्या औचित्य है, इसे समझाते हुए 50 वर्षीय साहू ने बताया, "वे केवल हमारी यूनियन की साथी या वकील नहीं है. हमारे लिए सुधा दीदी हमारा परिवार हैं."

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा एक कर्मचारी-खेतिहर मजदूरों की यूनियन है जिसकी स्थापना एक ओजस्वी ट्रेड यूनियन नेता शंकर गुहा नियोगी ने की थी. इसके सदस्य राजकुमार साहू सुधा भारद्वाज से 80 के दशक के अंत में मिले थे, जब वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) कानपुर से गणित की स्नातक बन कर निकली ही थीं. 20 वर्षीय सुधा भारद्वाज आईआईटी से निकलने के बाद दल्ली राजहरा नाम के खदानों के पास स्थित एक कस्बे में खदान मजदूरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए और यूनियन के साथ काम करने के लिए वहां आकर रहने लगीं थीं.

उस समय राजकुमार साहू और उनके साथ के 500 अन्य कर्मचारी दुर्ग की एक सीमेंट फैक्ट्री में अनुबंध पर काम करते थे. कंपनी की उस समय मालिक एसोसिएट सीमेंट कंपनीज़ लिमिटेड थी जो अब एक स्विस बहुराष्ट्रीय कंपनी लाफार्ज होल्सिम (Lafarge Holcim) के स्वामित्व में है. वे लोग उस समय स्थाई कर्मचारी होने की लड़ाई लड़ रहे थे. राजकुमार बताते हैं, "परंतु हमारी आमदनी बहुत कम थी और हमारी छोटी सी यूनियन वकीलों की फीस और खर्चे नहीं उठा सकती थी."

अंततः सुधा भारद्वाज ने कानून की पढ़ाई की ताकि वो साहू और उनके जैसे अन्य लोगों की अदालत में पैरवी कर सकें. जैसा कि उन्होंने अपने एक लेख में लिखा कि वह सन 2000 में "40 की पकी उम्र" में वकील बनीं.

राजकुमार आगे बताते हैं, "एक बार जब उन्होंने हमारा केस अपने हाथ में ले लिया तो अगले 16 साल तक लगातार लड़ा. वह हमारे साथ सुनवाई, भूख हड़ताल और मध्यस्थता के लिए लगी रहीं.” साहू ने कहा कि उनकी प्रतिबद्धता की वजह से कर्मचारियों को बहुत मुसीबतों के बाद विजय मिली जिनमें कर्मचारियों को कानूनी रूप से मिलने वाले वेतन, काम के अनुबंध की बेहतर शर्तें, पुरानी बिना भुगतान की गई मजदूरी और बोनस और इन सब के साथ सुरक्षा के लिए मिलने वाले हेलमेट और जूते भी थे.

राजकुमार साहू ने कहा कि उनके जैसे मजदूर जो रोजाना 500 रुपए पाते थे अब 28,000 महीना पाते हैं. "हमारे जैसे कामगार इतनी बड़ी कंपनियों के खिलाफ अदालत जाने की सोच भी नहीं सकते थे अगर सुधा दीदी हमारे साथ में खड़ी नहीं होती. हम लोगों के लिए यह कहना बड़ा मुश्किल है कि उनका हमारे जीवन में क्या योगदान रहा है."

सुधा भारद्वाज
सुधा भारद्वाज जनहित
दुर्ग से उत्तर की तरफ मध्य छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिला पड़ता है. पिछले दो दशकों से बड़ी कोयला खदानें और कोयले से चलने वाले बिजली के प्लांटों ने खनन कंपनियों की जेब भरी हैं. जबकि इसके परिणाम स्वरूप जंगल, खेत और गांव तहस नहस हो गये हैं जिससे अपनी पुश्तैनी ज़मीन खोने से आहत, प्रदूषित जल और हवा से बीमार पड़ते ग्रामीण, खासकर आदिवासी आज बुरी तरह त्रस्त हैं.

राजकुमार की ही तरह मिल्लूपूरा गांव की जानकी सिडर, सुधा भारद्वाज की बात उठते ही भावुक हो जाती हैं. जानकी सिडर रायगढ़ के अनेक आदिवासी किसानों में से एक हैं जो अपनी जमीन बिचौलियों, भूमाफिया और कारोबारी घरानों के द्वारा जाली हस्तांतरण से जूझ रही हैं. यह सब आदिवासी समाज की भूमि से जुड़ी उनकी आजीविका और पहचान को बचाने के लिए बने अनेकों कानून और संवैधानिक आश्वासनों के बावजूद हो रहा है.

जानकी याद करते हुए कहती हैं, "बहुत सालों से मेरा केस कहीं नहीं जा रहा था. बस एक तारीख से अगली तारीख पड़ती जा रही थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. फिर किसी ने हमें सुधा दीदी के पास भेजा और उन्होंने हमारा केस ले लिया."

साल 2011 में सुधा भारद्वाज जानकी सिडर की तरफ से छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में गई जहां पर उन्होंने छत्तीसगढ़ भूमि राजस्व अधिनियम, 1959 की धारा 170-बी के अंतर्गत मामले को अदालत के सामने रखा. धारा 170-बी आदिवासियों की ज़मीन का गैर आदिवासियों को हस्तांतरण प्रतिबंधित करता है और किसी भी जालसाजी के तहत हासिल की गई ऐसी ज़मीन को आदिवासी समाज को पुनः वापस देने की अनुमति देता है.

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