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मजदूरों का दर्द: 'किस भरोसे से गाँव वापस जाएं, दो महीने बाद खाली हाथ घर लौटने की हिम्मत नहीं बची है'

-गांव कनेक्शन,

"किस भरोसे से गाँव वापस जाएं ? दो महीने बाद खाली हाथ घर लौटकर घर जाने की हिम्मत नहीं बची है। गाँव में कोई रोजगार नहीं है कि जाते ही काम मिल जाएगा। वहां करेंगे भी क्या जाकर ? यहां कम से कम ये तो उम्मीद है कि लॉकडाउन खुलने के बाद हो सकता है कुछ काम ही मिल जाए।"

पुताई करने वाले राकेश कुमार (43 वर्ष) के इन शब्दों में घर से दूर रहने की तकलीफ भी थी और शहर से कुछ उम्मीदें भी। राकेश की तरह जब गाँव कनेक्शन ने लखनऊ के दो शेल्टर होम में एक दर्जन से ज्यादा मजदूरों से मुलाक़ात की तो ये मजदूर अपने घर जाने को लेकर असमंजस की स्थिति में दिखे। ये उन मजदूरों की पीड़ा थी जो कहीं प्राइवेट नौकरी नहीं करते, ये रोज कमाते हैं रोज खाते हैं। देश में लॉकडाउन के बाद गाँव वापसी के लिए लाखों मजदूर सड़क पर आ गये हैं। कोई गोद में बच्चे को लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चला जा रहा है, तो कोई साइकिल से एक हजार किलोमीटर की यात्रा करके पहुंच रहा है। कुछ सीमेंट के मिक्सर टैंक में घुसकर जा रहे हैं तो कुछ सड़कों पर घर पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनमें से कुछ भूख से रास्ते में ही दम तोड़ दे रहे हैं, कुछ सड़क हादसे में तो कुछ ट्रेन से कटकर बेमौत मर गये, बावजूद इसके ये सब अपने गाँव लौटना चाहते हैं ताकि ये भूखमरी से बच सकें।

मुंह पर मास्क बांधे राकेश, बगल में सैलून की दुकान चलाने वाले नागेन्द्र, नीली शर्ट पहने जगमोहन. लेकिन इस तस्वीर से इतर उत्तरप्रदेश के लखनऊ में कुछ ऐसे मजदूर भी रह रहे हैं जो कुछ सौ किलोमीटर अपने घर से दूर हैं पर फिर भी गाँव वापस जाने के लिए बेचैन नहीं हैं। ये मजदूर अलग-अलग वजहों से गाँव नहीं जाना चाहते। कुछ खाली हाथ घर नहीं जाना चाहते तो कुछ को गाँव में रोजगार की कोई आस नहीं दिख रही। कुछ को डर है कि वो भीड़भाड़ से होकर जायेंगे तो उनमें कोरोना का संक्रमण हो सकता है और उस संक्रमण से उनका पूरा परिवार प्रभावित हो सकता है। "परिवार से दूर हैं इसका हमें मलाल है, खर्चा चलाने के लिए परिवार को पैसे की जरूरत है मेरी नहीं। इस समय घर की परिस्थियाँ बहुत खराब हैं घर जाकर मुझसे देखी नहीं जायेंगी। तभी मन मारकर यहीं रुका हूँ। कुछ दिन तक ये बंदी और रही तो कोरोना से तो नहीं पर भुखमरी से जरुर मर जाएंगे हमसब? काम मिलेगा, चार पैसे हाथ में आएंगे, तभी घर जाऊंगा,"

ये कहते हुए राकेश के चेहरे पर उदासी और बेबसी थी। राकेश पीलीभीत जिले के रहने वाले हैं। लखनऊ में रहकर आठ साल से पुताई का काम करते हैं, फुटपाथ पर सोकर इनकी रातें गुजरती थीं। राकेश की तरह ऐशबाग में मील रोड और करेहटा चौराहे पर बने दो शेल्टर होम में जो मजदूर रुके हैं वो यूपी के अलग-अलग जिले से हैं। इसमें कोई ई-रिक्शा चलाता है, कोई सैलून की दुकान। कोई इलेक्ट्रीशियन है, कोई दिहाड़ी मजदूर। दो महीने से इन सबके काम बंद हैं इनके जेब खाली हैं।

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